के ही काम कर सकता हूँ। उनमें कितने तो बुरे होते हैं और
कितने संभवतः क्रोध, लोभ, स्वार्थादि मनोविकारों की गुप्त
प्रेरणा के कारण होते हैं। अब यदि कोई आप के पास किसी
आदर्श की शिक्षा देने आवे और उसकी पहली बात उसके
लिये यह हो कि स्वार्थ और भोग को छोड़ो, तो मैं समझता हूँ
कि यह असाध्य (हो नहीं सकता) है। पर ज्यों ही कोई ऐसा
आदर्श लाता है जो मेरे स्वार्थ के अनुकूल होता है, तो मैं प्रसन्न
हो जाता हूँ, उस पर उछलकर कूद पड़ता हूँ। यही मेरे लिये
आदर्श है। जैसे पक्षपाती शब्द का अर्थ भिन्न रूप से परि-
वर्तित किया गया है, वैसे ही कर्म शब्द के अर्थ में भी परिवर्द्धन
हुआ है। मेरा पक्षपात धर्मानुकूल है, तुम्हारा धर्म विरुद्ध है।
यही दशा कर्मण्यता की भी है। जिसे मैं करणीय समझता हूँ,
वही संसार में मेरे विचार से कर्मण्यता है। यदि मैं दूकानदार
हूँ तो मैं समझता हूँ कि संसार भर में दुकानदारी ही उत्तम
कर्मण्यता का व्यापार है। यदि मैं चोर हूँ तो मैं समझता हूँ
कि कर्मण्य बनने का उत्तम मार्ग चोरी करना ही है; अन्य
कार्य कर्मण्य बनाने योग्य नहीं हैं। लोग कर्मण्य शब्द का
व्यवहार ऐसे कामों के संबंध में करते हैं, जिन्हें वे अच्छा सम-
झते हैं और कर सकते हैं। अतः मैं आपसे इसे समझने के
लिये अनुरोध करूँगा कि वेदांत यद्यपि कर्मण्य वा व्यवहार की
वस्तु है, पर फिर भी उसकी कर्मण्यता आदर्श की दृष्टि से
है। और में वह आदर्श यह है कि आप दैवी हैं। ‘तत्वमसि!’
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