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पर हमारा काम यह है कि गुत्थियाँ सुलझाकर उन्हें सरल करें और वह युग लावें जब कि सब लोग उपासक बनें और मनुष्यों की निजी सत्ता उपास्यदेव बने।


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(२१) विश्वव्यापी धर्म की प्राप्ति का मार्ग।
(यूनिवर्स लिस्ट चर्च पेसाडेना, केलिफोर्निया २८ जनवरी १९००)

मनुष्य को ब्रह्म-जिज्ञासी से बढ़कर कोई जिज्ञासा प्रिय नहीं है। चाहे प्राचीन समय में हो वा वर्तमान काल में, मनुष्य का ध्यान जीवात्मा, ब्रह्म वा मनुष्य के भाग्य के विचार से अधिक और विषयों पर नहीं गया है। हम अपने नित्य के झमेलों में कितने ही व्यस्त क्यों न रहें, कभी न कभी हमें विराग हो ही जाता है और हम में परलोक के जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। कभी न कभी हमारा ध्यान इंद्रियातीत विषय पर जाता है। परिणाम यह होता है कि हम उसे प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। मनुष्य सदा से परोक्ष के जानने की इच्छा करता आया हैं और अपनी वृद्धि का आकांक्षी रहा है; और जिसे उन्नति वा विकास कहते हैं, वह सदा केवल इसी जिज्ञासा से होता आया है; अर्थात् इस जिज्ञासा से कि मनुष्य का परिणाम क्या है, ब्रह्म क्या है।

जिस प्रकार भिन्न भिन्न जातियों में हमारे सामाजिक झमेले नाना प्रकार के सामाजिक संघटन के रूप में प्रकट हुए हैं, उसी