वादी हैं, तो हमें इसी क्षण से समझ लेना चाहिए कि हमारी पुरानी आत्मा नष्ट हो गई, मर गई, अब नहीं रही। अमुकी और अमुक अब नहीं हैं; वे केवल पक्षपात मात्र थे; और अब तो यहाँ नित्य, शुद्ध, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ मात्र शेष है― वही है और रहेगा। फिर हमारे लिये कोई भय नहीं। सर्व- व्यापी को कौन क्षति पहुँचा सकता है? सारी निर्बलता चली गई और हमारा कर्तव्य केवल यही रह गया कि साथ के लोगों में हम यह भाव फैलावें। हम देखते हैं कि वे भी शुद्ध आत्मा हैं; केवल उन्हें ज्ञान नहीं है। हमें चाहिए कि हम उन्हें शिक्षा दें और अपने अनंत स्वभाव को जाग्रत करने में सहायता दें। यही बात है जिसकी आवश्यकता मुझे सारे संसार में प्रतीत होती है। यह सिद्धांत बड़ा पुराना है, अनेक पर्वतों से भी पुराना है। सब सत्य नित्य है। सत्य किसी की संपत्ति नहीं है; किसी जाति, किसी व्यक्ति का इस पर कोई निज का स्वत्व नहीं है। सब आत्माओं का स्वरूप सत्य है। इस पर किसका विशेष अधिकार हो सकता है? पर इसे काम में लाना चाहिए, सीधा बनाना चाहिए (क्योंकि सबले बढ़िया सत्य सदा सुबोध होता है) जिसमें वह मनुष्य-समाज के अंग अंग में घुस जाथ और सब स्त्री-पुरुष, बुड्ढे बच्चे का एक साथ ध्यान का विषय और संपत्ति बन जाय। तर्कशास्त्र की सारी युक्तियाँ, अध्यात्म की पोथियों की सारी गाँठें, सारे धर्म- पुराण और कर्मकांड अपने अपने समय के लिये अच्छे थे।
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