भलाई के स्थान पर बुराई का मार्ग दिखा रहा हूँ। यदि इस कोठरी में सहस्रो वर्ष से अंधकार है और आप आकर रोने लगें और चिल्लायँ कि ‘हाय हाय, अंधकार अंधकार!’ तो क्या इससे अंधकार जाता रहेगा? दियासलाई रगड़िए, अभी उजाला होता है। भला जन्म भर इस तरह झींकने से क्या होता है कि ‘मैंने बुराई की; मुझसे बहुत भूलें हुई’? इसे कोई प्रेत बतलाने आवेगा? प्रकाश करो, अंधकार भाग जाय। अपना चारित्र्य सुधारो, अपना सच्चा स्वरूप प्रकट करो― प्रकाशमय, ज्योतिः स्वरूप, विशुद्ध; और जो तुमको मिले, उसी में उसकी भावना करो। मेरी तो इच्छा है कि सब लोग इस अवस्था को प्राप्त हो जाते कि नीचातिनीच पुरुष में भी हमें वही परमात्मा दिखाई पड़ता और उससे घृणा करने की जगह हम कहते “हे प्रकाशमय, हे शुद्ध-बुद्ध, हे जन्म-मरण- रहित, हे सर्वशक्तिमान् , उठो, जागो और अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करो। यह छोटी अभिव्यक्ति तुम्हारे योग्य नहीं है।” यह सर्वोच्च प्रार्थना है जिसकी शिक्षा अद्वैतवाद देता है। यही एक प्रार्थना है कि अपने स्वरूप का स्मरण करो। जो हमारे भीतर ईश्वर है, उसे अनंत, सर्वशक्तिमान्, कृपालु, दयालु, निर्मम और अप्रमेय समझो। और वह निर्मम है, इसी लिये निर्भय भी है। भय तो स्वार्थ से होता है। जिसे कुछ इच्छा ही नहीं, उसे भय किसका, उसे कौन डरा सकता है? मृत्यु से उसे क्या भय है? पाप उसका क्या कर सकता है? अतः यदि हम अद्वैत-
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