पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१०७

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उपासना है। जितना अधिक हमें ज्ञान हो, उतना ही अच्छा है। वेदांती कहते हैं कि सारी बुराई की जड़ जो दिखाई पड़ती है, केवल अप्रमेय की प्रमेयता है। जो प्रेम तंग राह से परिमित होकर व्यक्त होता है, वह बुराई का रूप धारण करता है। वेदांत यह भी कहता है कि सब बुराइयों के कारण हमी हैं। किसी अलौकिक सत्ता को दोष मत दो, न निराश हो, न इसका ध्यान करो कि हम ऐसे स्थान पर हैं कि जब तक कोई आकर हमें सहायता न दे, हम यहाँ से निकल ही नहीं सकते। वेदांत कहता है कि ऐसा अशक्य है। हम रेशम के कृमि की भाँति हैं। हम अपने ही से तागा निकालकर कोश बनाते हैं और काला- तर में उसी के भीतर बद्ध हो जाते हैं। पर यह सदा रहती नहीं। उसी कोश में हम आध्यात्मिक साक्षात्कार लाभ करेंगे और तितली की भाँति उसे काटकर बाहर निकल जायँगे। हमने यह कर्म-जाल आप ही आप बना रखा है और उसी में अज्ञानवश अपने को बद्ध समझ रहे हैं और सहायता के लिये रोते और चिल्लाते हैं। पर सहायता कहीं बाहर से नहीं आती है। जब आती है, तब भीतर से ही आती है। विश्व के सारे देवताओं के सामने माथा पटकते फिरा कीजिए। मैं तो वर्षों प्रार्थना करता और चिल्लाता फिरा; पर अंत को मुझे जो सहा- यता मिली वह भीतर ही से मिली। मुझे उसे बिगाड़ना पड़ा जिसे मैंने भूल से बनाया था। यही एक मार्ग वा उपाय था। मैंने उस जाल को, जिसे मैं अपने ऊपर लपेटकर