में क्यों न व्यक्त होता हो, वही अद्भुत पदार्थ है जिसे निःस्वार्थता, त्यास या प्रेम कहते हैं। संसार में वही सच्ची और जीती-जागती शक्ति है। यही कारण है कि वेदांती उसी एकता पर डटे हैं। हम इस बात पर इसलिये डटे हैं कि हम विश्व के दो कारणों को नहीं मान सकते। यदि हम केवल यह मान लें कि वही मनोहर और अद्भुत प्रेम केवल परिमित हो जाने से बुरा वा निकृष्ट देख पड़ने लगता है, तो इसी एक प्रेम के बल से सारे विश्व के रहस्य का बोध हो जाता है। यदि नहीं तो विश्व के दो ही कारण मानिए, एक भलाई, दूसरा बुराई; एक प्रेम, दूसरा घृणा। देखिए, इन दोनों में कौन युक्तियुक्त है? सच- मुच एक ही शक्ति की बात ठीक निकलेगी।
अब हमें उन पदार्थों का आश्रय लेना चाहिए जिनका द्वैत- काद से संबंध नहीं है। अब हम क्षण भर भी द्वैतवाद पर नहीं दिक सकते। हमें भय लगता है। मेरा विचार है कि मैं यह दिखलाऊँ कि धर्म और निःस्वार्थता का सर्वोच्च आदर्श दोनों सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक ज्ञान के साथ साथ चलते हैं और आपको आचार और धर्म से नीचे के मार्ग में उतरने की आवश्यकता नहीं है। पर इसके विरुद्ध आचार और धर्म के मूल तक पहुँचने लिये श्रापको सर्वोच्च दार्शनिक और वैज्ञानिक विचार की आवश्यकता है। मनुष्य का ज्ञात मनुष्य जाति की भलाई का विरोधी नहीं है। इसके विरुद्ध यही एक ऐसा ज्ञान है जो अपने जीवन की सब अवस्थाओं में हमारा रक्षक है। ज्ञान ही में