हैं। एक स्वार्थ है और दूसरी निःस्वार्थता। एक ग्रहण है, दूसरी त्याग। एक लेती है, दूसरी देती है। छोटे से बड़े तक, सारा विश्व इनका क्रीड़ा-स्थल है। इसके लिये प्रमाण की अपेक्षा नहीं है, यह प्रकट है।
किसी समाज को अधिकार क्या है कि वह विश्व के विकास और सारी बातों को इन दोनों अंशों में एक ही के आधार पर माने―अर्थात् संघर्ष और संग्राम पर? उसे क्या अधिकार है कि विश्व के सारे कर्मों को विकार और विग्रह, संघर्ष और संग्राम पर अवलंबित समझे? यह दोनों कहाँ से हैं? क्या कोई इससे इन्कार कर सकता है कि प्रेम, निर्ममता, “मैं” का न होना और त्याग ही संसार वा विश्व में एक मात्र अवैकल्पिक शक्ति है? अन्य सब इसी प्रेम की शक्ति के अन्यथा प्रयोग मात्र हैं। इसी प्रेम की शक्ति से संघर्ष उत्पन्न होता है। संघर्ष का मुख्य हेतु प्रेम ही है। बुराई का प्रधान बीज स्वार्थत्याग में है। बुराई तो भलाई से उत्पन्न होती है और उसका अंत भी भलाई ही है। यह भलाई को शक्ति का अन्यथा प्रयोग मात्र है। वह मनुष्य जो किसी का घात करता है, बहुधा अपने बाल-बच्चों के प्रेम ही के कारण करता है। उसका प्रेम परिमित हो गया है और सिमटकर उसी बच्चे मात्र में आ गया है। वह अब विश्व के करोड़ो मनुष्यों में नहीं रह गया है। चाहे परिमिति हो वा अपरिमित, है तो वही प्रेम ही न।
अतः सारे संसार का संचालक बल, चाहे वह किसी रूप