पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[४]


अकर्मण्यता, जिसका अर्थ है किसी प्रकार की चेष्टा न करना, कभी उद्देश हो नहीं सकती। यदि ऐसा ही होता तब तो दीवार सबसे अधिक बुद्धिमान् और ज्ञानी होती; क्योंकि वह भी तो अकर्मण्य है। मिट्टी के डले, पेड़ों के ठूँठ संसार में सबसे बड़े महर्षि और महात्मा माने गए होते; क्योंकि वे किसी प्रकार की चेष्टा नहीं कर सकते। वह अकर्मण्यता कभी कर्मण्यता नहीं हो सकती जिसमें मनोविकार का लेश मात्र भी रहता है। सच्ची कर्मण्यता वा कर्म, जो वेदांत का उद्देश है, वही है जिसमें शाश्वत शांति हो, जिसकी शांति कभी भंग न हो सके, चित्त की वह समवृत्ति जिसमें चाहे जो हो, कभी क्षोभ न हो। हमें तो अपने जीवन में जो अनुभव मिलता है, उससे यही जान पड़ता है कि यही कर्म करने का सर्वोत्तम ढंग हैं।

मुझसे लोगों ने बार बार पूछा कि भला यदि हममें मनो- विकार न हो तो हम कर्म कैसे कर सकते हैं? कर्म के लिये तो प्रायः मनोविकार ही से प्रवृत्ति होती है। बहुत दिन हुए, मैं भी ऐसा ही जानता था। पर ज्यों ज्यों दिन बीतते जा रहे हैं और मुझे अनुभव होता जाता है, मुझे यह ठीक नहीं जान पड़ता। जितना ही मनोविकार कम हो, उतना ही हम अच्छा काम करते हैं। जितना ही हम शांत रहें, उतना ही अच्छा है और उतना ही अधिक हम काम कर सकते हैं। जब हमारा ध्यान बँटा रहता है तब शक्ति का अपव्यय होता है, नसें फटती हैं, मन क्षुब्ध रहता है और बहुत कम काम होता है। वह शक्ति