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६६-पाटिदेसनिय (१४२-१४५) (१) भोजनग्रहण और भिक्षणी आयुष्मानो ! यह चार पाटिदेसनिय दोप कहे जाते हैं । १–जो कोई भिक्षु ( गृहस्थके ) घरमें प्रविष्ट अज्ञातिका भिक्षुणीके हाथसे खाद्य भोज्यको अपने हाथ ग्रहण कर खाये या भोजन करे तो उस भिनुको पटिदेसना (प्रतिदेशना=अपराधकी स्वीकृति ) करनी चाहिये—“अावुस ! मैंने निंदनीय, अयुक्त, प्रतिदेशना करने योग्य कार्यको किया, सो मैं उसको प्रतिदेशना करता हूँ।" २–गृहस्थके घरोंमें निमंत्रित हो भिक्षु भोजन करते हैं। वहाँ वह भिक्षुणी स्नेह दिखलाती हुई खड़ी हो ( कहती है )-"यहाँ सूप ( उड़द या मूंगको दाल ) दो, यहाँ भात दो,” तो उन भिक्षुओंको उस भिक्षुणीको रोक देना चाहिये- भगिनी ! जब तक भिक्षु भोजन करते हैं तब तक तू परे चली जा।" यदि एक भिनुको भी उस भिक्षुणीका ( यह कहकर ) हटाना ठोक न अँचे कि-"भागिनो जब तक भिनु भोजन करते हैं, तब तक तू परे चलीजा" तो उन (सारे) भिक्षुओंको प्रतिदेशना करनी चाहिये-"आवुसो ! हुमने निंदनीय, अयुक्त, प्रतिदेशना करने योग्य कार्यको किया, सो हम उसकी प्रतिदेशना करते हैं।" अपने हाथसे ले भोजन करना ३-जो वह शैक्ष्य' ( सेख ) माने गये कुल हैं उन कुलोंमें जो भिक्षु अनिमंत्रित या नोरोग रहते ( जाकर ) खाद्य भोज्यको अपने हाथसे ग्रहणकर खाये या भोजन करे तो उस भिक्षुको प्रतिदेशना करनी चाहिये-"आवुस ! मैंने निंदनीय, अयुक्त, प्रतिदेशना करने योग्य कार्य किया सो मैं उसको प्रतिदेशना करता हूँ।" ४-जो वह भयावने शंकायुक्त आरण्यक आश्रम हैं वैसे आश्रमोंमें विहार करने. वाला, जो भिक्षु आरामके भीतर भो पहलेसे न निवेदित किये खाद्य भोज्यको निरोग रहते अपने हाथसे ले कर खाये या भोजन करे तो उस भिक्षुको प्रतिदेशना करनी चाहिये- "श्रावुस ! मैंने निंदनीय, अयुक्त, प्रतिदेशना करने योग्य कार्य किया, सो मैं उसकी प्रतिदेशना करता हूँ।" आयुष्मानो ! यह चार पाटिदेसनिय दोप कहे गये । आयुष्मानोंसे पूछता हूँ-क्या आप लोग इनसे शुद्ध हैं ? दूसरी वार भी पूछता हूँ -क्या शुद्ध हैं ? तीसरी बार भी पूछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? आयुष्मान् लोग शुद्ध हैं, इसीलिये चुप हैं-ऐसा मैं इसे धारण करता हूँ। पाटिदेसनिय समाप्त ॥ ६॥ १ अत्यन्त श्रद्धालु किन्तु धनहीन कुल । ३२ ] [६६।१-४