४-चुल्लबग्ग ५५० ] [ ???13 थे। उस समय आवुसो ! राजान्तःपुर (राज-दर्वार) में राज-सभामें एकत्रित लोगोंमें यह बात उठी—'शाक्यपुत्रीय श्रमण मोना-चांदी (- जातरूप-रजत) उपभोग करने हैं स्वीकार करते हैं।' उस समय मणि चू ळ क ग्रामणी उस परिपझें बैठा था। तब मणिचूळक ग्रामणीने उस परिपन्न कहा—मत आर्यो ! ऐसा कहो, शाक्यपुत्रीय श्रमणोंको जातरूप-रजित नहीं कल्पित (= विहित, हलाल) है, ० । वह मणि-सुवर्ण त्यागे हुए हैं, गावयपुत्रीय श्रमण, जातप रजत छोले हुने हैं० ।' आवुसो ! मणिचूळक ग्रामणी उम परिषद्को समझा सका । तब आवृमो ! मणिचूळक ग्रामणी उन परिषद्को समझाकर जहाँ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर भगवान्को अभिवादनकर.. एक ओर वैट. . .भगवान्से यह बोला- "भन्ते ! राजान्तःपुर में गजमभामें ० बात उठी ० । मैं उस परिषद्को समझा सका । क्या भन्ते ! ऐसा कहते हुये मैं भगवान्के कथितका ही कहनेवाला होता है ? असत्यले भगवान्का अभ्यास्थान् ( =निन्दा ) तो नहीं करता ? धर्मानुसार कथित कोई धर्म-बाद निन्दित तो नहीं ?” "निश्चय ग्रामणी ! ऐसा कहनेमे तू मेरे कथितका कहनेवाला है ०, कोई धर्मवाद निन्दित नहीं होता । ग्रामणी ! शाक्यपुत्रीय श्रमणोंको जातरूप-रजत विहित नहीं है ० । ग्रामणी ! जिसको जात-रूप-रजत कल्पित है, उसे पाँच काम-गुण भी कल्पित है, जिसको पाँच काम-गण (= काम-भोग) कल्पित हैं, ग्रामणी ! तुम उसको बिल्कुल ही अश्रमण-धर्मी. अ-गाश्यपुत्रीय-धर्मी समझना । और मैं ग्रामणी ! ऐसा कहता हूँ, तिन-का चाहनेवाले (=तृणार्थी) को तृण खोजना होता है, शकटार्थीको शकट ०, पुरुषार्थीको पुरुष ०; किन्तु ग्रामणी ! किसी प्रकार भी में जातरूप-रजतको स्वादितव्य. पर्येषितव्य ( =अन्वेषणीय ) नहीं मानता ।' ऐसा कहनेवाला मैं ° आयुप्मान् उपासकोंको निन्दता हूँ ।” "आवुसो ! एक समय उसी रा ज गृह में भगवान्ने आयुप्मान् उ प न न्द शादयपुत्रको लेकर, जातरूप-रजतका निषेध किया, और शिक्षापद (=भिक्षु-नियम) बनाया। ऐसा कहनेवाला मैं ऐसा कहनेपर वै शा ली के उपसकोंने आयुष्मान् यश काकंडकपुत्तसे कहा- "भन्ते ! एक आर्य यश ही शाक्यपुत्रीय श्रमण हैं, यह सभी, अश्रमण हैं, अ-शाक्यपुत्रीय हैं। आर्य यश ० वैशालीमें वास करें। हम आर्य यश ० के लिये चीवर; पिंडपात शयनासन ग्लान-प्रत्यय भैपज्य परिष्कारोंका प्रवन्ध करेंगे।" तव आयुप्मान् यश ० वैशालीके उपासकोंको समझाकर, अनुदूत भिक्षुके साथ आरामको गये । तब वैशालिक वज्जिपुत्तक भिक्षुओंने अनुदूत भिक्षुसे पूछा- "आवुस ! क्या यश काकण्ड-पुत्तने वैशालिक उपासकोंसे क्षमा माँगी ?" "आवुसो ! उपासकोंने हमारी निन्दाकी--एक आर्य यश ० ही श्रमण हैं, शाक्य-पुत्रीय हैं। हम सभी अश्रमण, अशाक्य-पुत्रीय वना दिये गये।" तव वैशालिक वज्जिपुत्तक भिक्षुओंने ( विचारा )-'आवुसो ! यह यश काकण्डक-पुत्त हमारी असम्मत (वात)को गृहस्थोंको प्रकाशित करता है; अच्छा तो हम इसका उत्क्षेप णी य' कर्म करें।' वह उनका उत्क्षेपणीय-कर्म करनेके लिये एकत्रित हुए। तव आयुप्मान् यश आकाशमें होकर कौशाम्बी जा खळे हुए। ! १देखो महादग्ग ९९४१५ (पृष्ठ ३१४) ।
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