छन्नको ब्रह्म-दण्ड ११४४।२ ] [ ५४७ "क्या आपन आनन्दको कुछ दिया !" "महाराज ! पाँच सौ चादरें दीं।" "आप आनन्द ! इतने अधिक चीवर क्या करेंगे?" महाराज ! जो फटे चीवर वाले भिक्षु है, उन्हें वाँटेंगे।" "और. . .जो वह पुराने चीवर है, उन्हें क्या करेगें ?" "महाहाराज ! बिछौनेकी चादर बनायेंगे।" "...जो वह पुराने बिछौनेकी चादरें हैं, उन्हें क्या करेंगे?" ". .उनसे गद्दे का गिलाफ बनायेंगे।" जो वह पुराने गद्देके गिलाफ हैं, उन्हें क्या करेंगे?" "...उनका महाराज ! फर्श बनावेंगे।" "...जो वह पुराने फर्ग है, उनका क्या करेंगे? उनका महागज ! पायंदाज बनावेंगे।" ". . .जो वह पुराने पायंदाज हैं, उनका क्या करेंगे?' .उनका महाराज ! झाळन बनावेंगे।" ". . .जो वह पुराने झाळन हैं? कूटकर, कीचळके साथ मर्दनकर पलस्तर उनको.. तब राजा उदयनने-'यह सभी गावयपुत्रीय श्रमण कार्यकारण देखकर काम करते हैं, व्यर्थ नहीं जाने देते'-(कह), आयुप्मान् आनन्दको पाँच-मौ और चादरें प्रदान की। यह आयुष्मान् आनन्दको एक हजार चीवरोंकी प्रथम त्रीवर-भिक्षा प्राप्त हुई। (२) छन्नको ब्रह्मदण्ड तव आयुष्मान् आनन्द जहां घो पि ता रा म था, वहाँ गये, जाकर विछे आसनार बैठ । आयुष्मान् छन्न जहाँ आयुष्मान् आनन्द थे, वहाँ गये, जाकर आयुष्मान् आनन्दको अभिवादन कर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे आयुप्मान् छ न्न से आयुष्मान् आनन्दने कहा- "आवुस ! छन्न ! संघने तुम्हें, ब्रह्मदंडकी आज्ञा दी है ।" "क्या है भन्ते आनन्द ! ब्रह्मदंड ?" "तुम आवुस छन्न ! भिक्षुओंको जो चाहना सो बोलना, किन्तु भिक्षुओंको तुमसे नहीं बोलना होगा, नहीं अनुशासन करना होगा।" "भन्ते आनन्द ! मैं तो इतनेसे मारा गया, जो कि भिक्षुओंको मुझसे नहीं बोलना होगा।" -(कह) वहीं मूछित होकर गिर पळे । तव आयुष्मान् छन्न ब्रह्मदण्डसे बेधित, पीळित, जुगुप्सित हो, एकाकी, निम्संग, अ-प्रमत्त, उद्योगी, आत्मसंयमी हो, विहार करते, जल्दी ही जिसके लिये कुल- पुत्रः । प्रद्रजित होते हैं; उस सर्वोत्तम ब्रह्मचर्य-फलको इसी जन्ममें स्वयं जानकर साक्षात्कारकर= प्राप्तकर विहरने लगे । और आयुष्मान् छन्न अर्हतोंमें एक हुए। तब आयुप्मान् छन्न अर्हत्-पदको प्राप्तहो जहाँ आयुप्मान् आनन्द थे, वहाँ गये, जाकर आयु- 'मान् आनन्दसे वोले- "भन्ते आनन्द ! अब मुझसे ब्रह्मदण्ड हटा लें।" "आबुस छन्न ! जिस समय तूने अर्हत्त्वका साक्षात्कार किया, उसी समय ब्रह्म-दण्ड हट गया।" इस विनय-संगतिमें पाँचसौ भिक्षु--न कम न वेशी थे। इसलिये यह विनय-संगीति 'पंच गतिका' कही जाती है। ग्यारहवाँ पंचसतिकाक्खन्धक समाप्त ॥११॥
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/६१६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।