- प्राकथन मज्लिम-निकायके छपते वक्त, मैंने इस वर्ष वि न य पि ट क का अनुवाद करनेकी बात लिखी थी। अबकी बार संस्कृत ग्रंथोंकी खोजमें मुझे तिब्बत आना पळा । मैं जानता था, कि यहाँ खोजके काममें ही बहुत समय लग जायेगा, इसलिये तिब्बतके भीतर (डो-मो–छुम्बी उपत्यकामें) पहुँचते ही मैंने अनुवादके काममें हाथ लगानेका निश्चय कर लिया। हमारे खच्चरवालेका घर डो-मोके पद्-मो-गङ गाँवमें था। २७ अप्रैलको वहीं विश्राम करते वक्त अनुवाद प्रारम्भ किया गया । सारा अनुवाद २७ दिनोंमें हुआ, जिसका विवरण इस प्रकार है- स्थानका नाम अप्रैल २७ १ दिन पद्-मो-गड मई २-४ फ-रि १२ १.. ग्यांचे २१-२५ ल्हासा ३ १,२ २ ३ जन ८,९ 1 ११-१७ २७ बुद्ध च र्या का अनुवाद ६८ दिनमें समाप्त हुआ था, म ज्झि म - नि का य का ३८ दिनोंमें, और अबकी बार इस विनय-पिटकका सिर्फ २७ दिनोंमें। मेरे मित्र अनुवादकी सभी त्रुटियोंको इस शीघ्रताके कारण बतलाते हैं, यद्यपि उसकी अधिक जिम्मेवारी कामके नयेपन और मेरी अल्पज्ञतापर अधिक है। तो भी इस ग्रंथमें कुछ त्रुटियोंके दूर करनेका प्रयत्न किया गया है। इस अनुवादमें श्रीराजनाथ, एम० ए० की द्रुतगामिनी लेखनीने बहुत सहायता की है। अबकी बार अपनी परीक्षा देकर वह ल्हासाकी यात्रा करने आये थे। वह कुछ पत्रोंको छोळ भिक्खु-पातिमोक्ख, भिक्खुनी- पातिमोक्ख और महावग्ग सारा ही, तथा चुल्लवग्गके तीसरे स्कन्धकके कुछ अंश तकको लिखकर ७ जूनको भारत लौट गये । श्रीराजनाथका इस सहायताके लिये कृतज्ञ होना ज़रूरी है। इसके साथ ही ल्हासाकी छ - स्त्रि न् - ग र कोठीके स्वामी साह ज्ञानमान और साहु पूर्णमानने भी निवास और भोजनका उत्तम प्रबंध करके काम सहायता नहीं पहुंचाई है, इसलिये उनके लिये भी कृतज्ञता प्रकाश करता हूँ । इन दर्प 'दीघ-निकायका अनुवाद करना था। उसके कितने ही सूत्रोंका अनुवाद मैं पहिले कर चुका था, बाकीका अनुवाद मेरे कनिष्ट भाई भिक्षु जगदीग काश्यप, एम० ए० ने कर डाला है । अवनी गर्मियों में जापानमें रहते वक्त, उस अनुवादकी आवृत्ति होगी। भिक्षु काश्यप और.श्री वाणदेव, बी० ए० ने परिशिष्ट तैयार करनेमें बहुत सहायता की है। और उन्होंने तथा पण्डित, उदयनागपण त्रिपाठी, एम० ए० और भदन्त आनन्दने फ़-मंगोधनमें बहुत सहायता की है । भन्न आनन्द कौनल्यामनने अपनी प्रतिज्ञाननार अबकी नाल १०० जानक-कहानियोंका नवाद काला है, और शंष प्रेनमें है। आगा है. चार और भागों में बह जातकोंको हिन्दीमें हामा गहल मांकृत्यायन
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