.. ५१६ ] ४-चुल्लबग्ग [ २३२ "उपालि ! आत्मादान लेनेवाले भिक्षुको पाँच बातोंसे युवत आत्मादानको लेना चाहिये। (१) आत्मादान लेने की इच्छावाले भिक्षुको यह सोचना चाहिये-जिस आत्मादानको मैं लेना चाहता हूँ, क्या उसका काल है या नहीं। यदि उपालि ! मोचते हुए यह समझ--यह इस आत्मादानका अकाल है, काल नहीं है ; तो उपालि ! बैगे आत्मादानको नहीं लेना चाहिये। (२) किन्तु यदि उपालि ! सोचने हुये यह समझे--यह इस आत्मादानका काल है, अकाल नहीं है; तो उपालि ! उस भिक्षुको आगे मोत्रना चाहिये--'जिस आत्मादानको में लेना चाहता हूँ क्या वह भून (=यथार्थ) है या नहीं है। यदि उपालि ! सोचते हुये यह समझे--यह आत्मादान अ-भून है, भूत नहीं है; नो उपालि ! बैन आत्मादानको नहीं लेना चाहिये। (३) किन्तु यदि उपालि ! मोचते हुये यह समझे--यह आन्मादान भूत है, अभूत नहीं: तो उपालि ! उस भिक्षु को आगे सोचना चाहिये--'जिम इग आत्मादानको मैं लेना चाहता हूँ, क्या यह आत्मादान अर्थ-संहित (=मार्थक) है, या नहीं ।' यदि उपालि ! मोचते हुये यह समझे—यह आत्मादान अनर्थक है, सार्थक नही; तो उपालि ! वैसे आत्मादानको नहीं लेना चाहिये। (४) किन्तु यदि उपालि ! सोचते हुये यह समझे—यह आत्मादान मार्थक है, अनर्थक नहीं; तो उपालि! उन भिक्षुको आगे सोचना चाहिये-'जिस इस आत्मादानको मैं लेना चाहता हूँ, क्या इस आत्मादानके लिये वर्तमानमें सम्भ्रान्त भिक्षुओंको धर्म और वि न य के अनुसार महायक पाऊँगा या नहीं। यदि उपालि ! सोचते हुये यह समझे-इस आत्मादानके लिये वर्तमानमें सम्भ्रान्त भिक्षुओंको धर्म और वि न य के अनुसार में सहायक न पा सकूँगा; तो उपालि ! वैसे आत्मादानको नहीं लेना चाहिये। (५) किन्तु यदि उपालि। भिक्षु सोचते हुये यह समझे—इस आत्मादानके लिये वर्तमानमें सम्भ्रान्त, भिक्षुओंको धर्म और वि न य के अनुसार मैं सहायक पा सकूँगा; तो भिक्षुओ ! उस भिक्षुको आगे सोचना चाहिये- 'क्या इस आत्मादानके लेनेपर, उसके कारण संघमें भंडन कलह, विवाद, संघ-भेद, संघ - संघ-व्यवस्थान (=संघमें अलगा-विलगी=संघका-नानाकरण) होगा या नहीं ?' यदि उपालि ! भिक्षु सोचते हुये यह समझे--इस आत्मादानके लेनेपर, उसके कारण संघमें कलह ० होगा, तो उपालि ! वैसे आत्मादानको नहीं लेना चाहिये। किन्तु यदि उपालि ! भिक्षु सोचते हुये यह समझे उसके कारण संघमें कलह ० नहीं होगा, तो उपालि ! वैसे आत्मादानको लेना चाहये । उपालि ! इस प्रकार पाँच बातोंसे युक्त आत्मादानको लेनेपर पीछे भी पछतावा नहीं करना होगा।" 24 (२) दोषारोपके लिये अपेक्षित वातें १--"भन्ते ! दोषारोपक भिक्षुको दूसरेपर दोपारोपण करते वक्त कितनी बातोंके बारेमें अपने भीतर प्रत्यवेक्षण (=अच्छी तरह देख-भाल) कर दूसरेपर दोपारोपण करना चाहिये ?" (१) उपालि ! दोषारोपक भिक्षुको दूसरेपर दोपारोपण करते वक्त इस प्रकार प्रत्यवेक्षण करना चाहिये--मैं शुद्ध कायिक आचरणवाला हूँ न ? छिद्रादि मलरहित परिशुद्ध कायिक आचरणसे युक्त हूँ न? यह धर्म मुझमें है या नहीं है ? यदि उपालि ! भिक्षु शुद्ध कायिक आचरणवाला नहीं । तो उसके लिये कहनेवाले होंगे-'आयुष्मान् (पहिले स्वयं तो) कायिक (आचार) का अभ्यास .(२) और फिर उपालि ! ० इस प्रकार प्रत्यवेक्षण करना चाहिये--मैं शुद्ध वाचिक आचरण- वाला हूँ न ? ०। (३) और फिर उपालि ! इस प्रकार प्रत्यवेक्षण करना चाहिये-सब्रह्मचारियोंमें द्रोह रहित मैत्री भाव युक्त मेरा चित्त सदा रहता है न ? यह धर्म मुझमें है या नहीं। यदि उपालि ! भिक्षुका सब्रह्मचारियोंमें द्रोह-रहित मैत्रीभावयुक्त चित्त सदा नहीं रहता तो उसके लिये कहनेवाले होंगे- 'आयुप्मान् पहिले सब्रह्मचारियोंमें मैत्रीभाव तो कायम करें।...(४)और उपालि ! ० इस प्रकार प्रत्य- वेक्षण करना चाहिये-मैं बहुश्रुत, श्रुतधर, श्रुत-संचयी तो हूँ न ? जो वह धर्म आदि-कल्याण, मध्य- कल्याण, पर्यवसान-कल्याण है, (जो) अर्थ, और व्यंजनके सहित केवल परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्यको -रा जी, . aho करें।....
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