१ ख. ९७३।१] आत्मादान [ ५१५ 'आवुस ! मैंने शिक्षाका प्रत्याख्यान कर दिया। तो भिक्षुओ ! इच्छा होनेपर ० । (वह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है। 18 "भिक्षुके प्रातिमोक्ष स्थगित कर देनेपर ०१ । (यह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है। क. "कैसे धार्मिक सामग्रीमें नहीं जाता है ?-(१) यदि भिक्षुओ ! उन आकारों से भिक्षु (स्वयं) (उस) भिक्षुको धार्मिक सामग्रीमें नहीं जाते देखता है। (२) भिक्षु (स्वयं) उस भिक्षुको धार्मिक सामग्री में जाते नहीं देखता है, किन्तु दूसरे भिक्षुने (उस) भिक्षुसे कहा है-आवुस ! इस नाम- वाला भिक्षु धार्मिक सामग्रीमें नहीं जाता। (३) न ० स्वयं देखा, नहीं दूसरे भिक्षुने (उस) भिक्षुसे कहा-; बल्कि उसीने (उस) भिक्षुसे कहा-'आवुस ! मैं धार्मिक सामग्रीमें नहीं जाता' । तो भिक्षुओ ! इच्छा होनेपर० । (वह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है। 19 ["भिक्षुके प्रातिमोक्ष स्थगित कर देनेपर ०१ । (यह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है।] "कैसे धार्मिक सामग्रीका प्रत्यादान (=किये फैसलेका उलटाना ?) होता है ?- (१) यदि भिक्षुओ ! ० उन आकारों ० से भिक्षुने (स्वयं) (उस) भिक्षुको धार्मिक सामग्रीका प्रत्यादान करते देखा । (२) ० दूसरे भिक्षुने उस भिक्षुसे कहा है--'आवुस ! इस नामवाले भिक्षुने धार्मिक सामग्रीका प्रत्यादान किया है'। (३) न ० स्वयं देखा, नहीं दूसरे भिक्षुने (उस) भिक्षुसे कहा-०; बल्कि उसीने (उस) भिक्षुसे कहा-'आवुस ! मैंने धार्मिक सामग्रीका प्रत्यादान किया' । तो भिक्षुओ ! इच्छा होने- पर ०१ । (वह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है। 20 "भिक्षुके प्रातिमोक्ष स्थगित कर देनेपर ०१ । (यह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है । ग. "कैसे शील-भ्रष्टतामें देखा (=दृष्ट) सुना (=श्रुत) शंका किया (=परिशंकित होता है ?- (१) यदि भिक्षुओ ! ० उन आकारों०से भिक्षु (स्वयं) (उस) भिक्षुको शील-भ्रष्टतामें देखा-सुना-शंका किया देखता है । (२) भिक्षुने (स्वयं) ० नहीं देखा, किन्तु दूसरे भिक्षुने (उस) भिक्षुसे कहा-'आवुस ! इस नामवाला भिक्षु शील भ्रष्टतामें दृष्ट-श्रुत-परिशंकित है'। (३) न ० स्वयं देखा, नहीं दूसरे भिक्षुने (उस) भिक्षुसे कहा-०; बल्कि उसीने (उस) भिक्षुसे कहा है-'आवुस ! में शील भ्रष्टतामें दृष्ट-श्रुत-परिशंकित हूँ। तो भिक्षुओ! इच्छा होनेपर ०२। (वह) प्रातिमोक्ष स्थगित करना धार्मिक है । 21 घ. “कैसे आचार-भ्रष्टतामें दृष्टश्रुत-परिशंकित होता है ?--० ड. "कैसे दृष्टि-भ्रष्टतामें दृष्ट-श्रुत-परिशंकित होता है ?-०३ ।” 23 प्रथम भाणवार ( समाप्त ॥१॥ ! ! ३ 122 ६३-अपराधोंका यों ही स्वीकारना और दोषारोप तव आयुष्मान् उ पा लि जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये, जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे आयुष्मान् उपालिने भगवान्से यह कहा- (१) आत्मादान "भन्ते! आत्मा दा न लेनेवाले भिक्षुको किन बातोंसे युक्त आत्मादानको लेना चाहिये ?" तरह। १ऊपर पृष्ठ ५१४ (१७) की देखो पृष्ठ ५१४ (१६) (पाराजिक शब्द बदलकर) । शील-भ्रष्टताको तरह यहाँ भी समझना । ४ धर्मको शुद्धिके विचारसे, भिक्षु जिस अधिकरण (=नुकदमे) को अपने ऊपर ले लेता है, उसे आत्मादान कहते हैं।
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