५१० ] ४-चुल्लवग्ग [ ९४१।२ दूसरी बार भी आयुष्मान् महामौद्गल्यायन उस पुरुषो यह बोले- "आवुस ! उठ, भगवान्ने तुझे देख लिया ।।।" दूसरी बार भी वह पुरुप चुप रहा । तीसरी बार भी० वह पुरुप चुप रहा । तव आयुष्मान् महामौद्गल्यायन उग पुरुपको हाथगे पकड़कर हार कोठक (प्रधान द्वार) से बाहर निकाल (किवाळमें) विलाई (सूची, घटिका) दे जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जा कर भगवान्ने यह बोले- "भन्ते ! मैंने उस पुरुपको निकाल दिया, परिपद् शुद्ध है। भन्ते ! भगवान् भिक्षुओंके लिये प्रातिमोक्ष-रद्देश करे।" "आश्चर्य है मौद्गल्यायन ! अद्भुत है मौद्गल्यायन ! ! जो हाथ पकळनेपर वह मोच गया !!!" तब भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- (२) बुद्ध-धर्ममें आठ अद्भुत गुण "भिक्षुओ! म हा समुद्र में यह आठ आश्चर्य अदभुत गुण (धर्म) हैं, जिन्हें देख अनुर (लोग) महासमुद्रमें अभिरमण करते है। कौनसे आठ?--(१) भिक्षुओ! महानमुद्र क्रमश: गहा (=निम्न) =क्रमशःप्रवण (=नीच), क्रमशः प्राग्भार (=झुका) होता है, एकदम किनारे खळा गहरा नहीं होता। जो कि भिक्षुओ! महासमुद्र क्रमशः गहरा०, यह भिक्षुओ ! महासमुद्रमें-- प्रथम आश्चर्य अद्भुत गुण है, जिसे देख असुर०। (२) और फिर भिक्षुओ! महासमुद्र स्थिर-धर्म है-किनारेको नहीं छोळता। जो कि०। (३) और फिर भिक्षुओ ! महासमुद्र मरे मुर्देके साथ नहीं बात करता। महासमुद्रमें जो मरा-मुर्दा होता है, उसे शीघ्र ही तीरपर वहाता है, या स्थलपर फेंक देता है। जो कि०। (४) और फिर भिक्षुओ! जो कोई महानदियाँ हैं, जैसे कि गंगा, यमुना, अत्रि र व ती (=रापती), श र भू (सरयू , घाघरा) और म ही (=गंडक), वह सभी महासमद्रको प्राप्त हो अपने पहिले नाम-गोत्रको छोळ देती हैं, महासमुद्रके ही (नामसे) प्रसिद्ध होती हैं। जो कि०। (५) और फिर भिक्षुओ ! जो कोई भी संसारमें बहनेवाली (=पानीकी धारें) समुद्र में जाती हैं, और जो कोई अन्तरिक्षसे (वर्षाकी) धारा गिरती है; उससे महासमुदकी ऊनता (=कमी) या पूर्णता नहीं दीख पळती। जो कि०। (६) और फिर भिक्षुओ ! महासयमुद्र एक रस है, लवण (ही उसका) रस है। जो कि०। (७) और फिर भिक्षुओ! महासमुद्र बहुतसे रत्नों-वाला है। रत्न यह हैं जैसे कि- मोती, मणि, वैदूर्य (=हीरा) , शंख, शिला, मुंगा, चाँदी, सोना, लो हि तां क (रक्तवर्ष मणि), म सा ण ग ल्ल (-एक मणि)। जो कि०। (८) और फिर भिक्षुओ ! महासमुद्र महान् प्राणियों (=भतों) का निवास स्थान है। प्राणी ये हैं, जैसे कि तिमि, ति मि गिल, ति मि र, पि ग ल, असुर, ना ग, गंधर्व। महासमुद्रमें सौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं, दोसौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं, तीन- सौ योजनवाले०, चार सौ योजनवाले०। पाँच सौ योजनवाले भी शरीरधारी हैं। जो कि०। भिक्षुओ! महासमुद्रमें यह आठ आश्चर्य-अद्भुत गुण हैं । "ऐसे ही भिक्षुओ ! इस धर्म-विनय (=बुद्ध धर्म) में आठ आश्चर्य अद्भुत धर्म (=गुण) है, जिन्हें देखकर भिक्षु इस धर्म-विनयमें अभिरमण करते हैं। कौनसे आठ ?-(१) जैसे भिक्षुओ! महासमुद्र क्रमशः गहरा, क्रमश: प्रवण , क्रमशः प्राग्भार है, एक दम किनारेसे खळा गहरा नहीं होता; ! ऐसे ही भिक्षुओ ! इस धर्म-विनयमें क्रमशः शिक्षा, क्रमशः क्रिया, क्रमशः मार्ग (=प्रतिपद्) है, एक दम (शुरूही) से आ ज्ञा (=मुक्तिपद) का प्रतिवेध (साक्षात्कार) नहीं है । जो कि भिक्षुओ! इस .
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५७९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।