५०० ] [ ८२ ४-चुल्लवग्ग F२-भोजन-सम्बन्धी नियम 1 (१) भोजनका अनुमोदन उस समय भिक्षु भोजके समय (दानका) अनुमोदन न करते थे। लोग हैगन० होते थे-कमे शाक्यपुत्रीय श्रमण भोजनके समय अनुमोदन नहीं करते।' भिक्षुओंने० गुना । उन भिक्षुओंने भगवान्ने यह बात कही। भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें धार्मिक-कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, भोजनके समय अनुमोदन करनेकी।" तव उन भिक्षुओंको यह हुआ—किसे भोजनके समय अनुमोदन करना चाहिये। भगवान्से यह बात कही।0- (२) भोजनके समयके नियम "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, स्थविर (=वृद्ध) भिक्षुको अनुमोदन करनेकी।" उस समय एक पूग (=वनियोंका समुदाय)ने संघको भोज दिया था। आयुष्मान सारिपुत्र संघ-स्थविर (=संघमें सबसे पुराने भिक्षु) थे। भिक्षु-स्थविर भिक्षुको भगवान्ने भोजनके समय अनु- मोदन करनेकी अनुमति दी है- (सोच) आयुप्मान् सारिपुत्रको अकेले छोळ चले गये। तब आयुष्मान् सारिपुत्र उन मनुष्योंसे (दानका) अनुमोदनकर पीछे अकेले ही चले। भगवान्ने आयुष्मान् सारिपुत्रको दूरसे ही आते देखा। देखकर आयुष्मान् सारिपुत्रसे यह कहा- "सारिपुत्र ! भोजन ठीक तो हुआ ?" "भोजन ठीक हुआ, भन्ते ! मुझे भन्ते ! अकेले छोळ भिक्षु चले आये।" तव भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें धार्मिक कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, भोजनकी पाँतमें चार पाँच (उपसंपदाके क्रमसे) स्थविरों अनु- स्थविरोंको (अनुमोदन कर लेने तक) प्रतीक्षा करनेकी।" उस समय एक स्थविरने शौचकी इच्छा रहते प्रतीक्षा की। शौचको वह रोकते मूर्छित हो गिर पळा। भगवान्से यह बात कही।-- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, काम होनेपर अपने वादवाले भिक्षुको पूछकर जानेकी ।" उस समय पड्वर्गीय भिक्षु बिना ठीकसे पहिने-ढंके भोजनकी पाँतमें जाते थे। स्थविर भिक्षुओं को भी धक्का देकर बैठते थे, नवक भिक्षुओंको भी आसनसे रोकते थे। संघाटीको भी बिछाकर बैठते थे।० ०अल्पेच्छ० भिक्षु०।०।- "तो भिक्षुओ! भोजनकी पाँतके लिये भिक्षुओंके व्रतका विधान करता हूँ-जैसे कि भिक्षुओं को भोजनकी पाँतमें वर्तना चाहिये । “यदि आराममें कालकी सूचना आई हो, तो तीनों मंडलोंको ढाँकते' परिमंडल २ (चीवर) पहिन कमरवन्द (= काय-बन्धन) को वाँध, चौपेत (सगुण) कर संघाटीको पहिन, मुद्धी दे, धोकर पात्र ले ठीकसे-विना जल्दीके गाँवमें प्रवेश करना चाहिये। आगे बढ़कर स्थविर भिक्षुओंके आगे आगे नहीं जाना चाहिये। "(गृहस्थोंके) १ घरके भीतर सुप्रतिच्छन्न (=अच्छी तरह ढंके शरीरवाला) होकर जाना १भिक्खु पातिमोक्ख १७।२ (पृष्ठ ३३) । देखो भिक्खु-पातिमोक्ख F७३ (पृष्ठ ३४) ।
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