ma ६२।११-१२ ] २-संघादिसेस ११-उस ( संघ-भेदक ) भिक्षुके अनुयायी, पक्षपाती एक दो या तीन भिक्षु हों और वे यह कहें-'आयुष्मानो ! मत इस भिक्षुको कुछ कहो । यह भिक्षु धर्मवादी है, नियमानुकूल ( = विनय ) बोलने वाला है । हमारी भी राय और रुचिको लेकर यह कह रहा है, हमारे मनको ( वातको ) जानता है, कहता है । हमको भी यह पसन्द है।' तव दूसरे भिनु उन भिक्षुओंको इस प्रकार कहें-मत आयुष्मानो ! ऐसा कहो । यह भिक्षु धर्मवादी नहीं है और न यह भिक्षु नियमानुकूल बोलने वाला है। आयुष्मानों- को भी संघमें फूट डालना न रुचना चाहिये। आयुष्मानो ! संघसे मेल करो। परस्पर हेल मेल वाला, विवाद न करने वाला, एक उद्देश्य वाला, एकमत रखने वाला संघ सुख-पूर्वक रहता है । यदि उन ( समझाने वाले ) भिक्षुओंके ऐसा कहने पर भी वे ( संघ- भेदक भिक्षुके साथी ) अपनी ज़िदको पकड़े रहें तो ( समझाने वाले ) भिक्षु तीन बार तक उस (ज़िद )से हटानेके लिये उसको कहें। यदि तीन बार कहनेपर वे उस (ज़िद ) को छोड़ दें तो यह उनके लिये अच्छा है । यदि न छोड़ें तो यह संघादिसेस है । (५) बात न सुनने वाला बनना १२–यदि कोई भिनु कटु-भाषी है, विहित आचार नियमों ( = शिक्षा-पदों ) के वाग्में भिक्षुओं द्वारा उचितरीतिसे कहे जाने पर कहता है-'आप लोग मुझे कुछ न बोलें, आयुष्मान् लोग मुझे अच्छा या बुरा कुछ मत कहें। मैं भी आयुष्मानोंको अच्छा बुरा कुछ नहीं कहूँगा। आयुष्मानो ! ( आप सब ) मुझसे बात करनेसे बाज आयें।' तो - गौतमके पास चलकर पाँच वातें साँगें । 'अच्छा हो भन्ते ! भिक्षु (१) जिन्दगी भर वनमें ही रहा करें । जो गांवमें रहे वह दोपी हो। (२) जिन्दगी भर भिक्षा माँग कर ही खाये । जो निमंत्रण खाये वह दोपी हो। (३) जिन्दगी भर फेंके चीथड़ोंको ही सीकर पहनें । जो गृहस्थोंके दिये वस्त्र को पहने वह दोषी हो । जिन्दगी भर पेड़के नीचे ही रहें । जो छतके नीचे रहे वह दोपी हो । और ( १ ) जिन्दगी भर मछली-मांस न खाये । जो मछली मांस खाय वह दोपी हो । श्रमण गौतम इसे नहीं मानेगा तब हम इन पाँच बातोंको लेकर लोगोंको समझायेंगे । आयुसो ! इन पाँच वातोंको लेकर श्रमण गौतमके संघ चक्रको फोड़ा जा सकता है । मनुष्य तो आधुसो ! कठोर जीवनकी ही और अधिक श्रद्धा रखते हैं।" तव देवदत्त अपनी मंडली के साथ जहाँ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर भगवान् को अभि- वादन करएक ओर बैठे हुए बोला-..."अच्छा हो भन्ते ! भिक्षु ( १ ) जिन्दगी भर वनमें ही रहा करें ( आदि पांचो वातें बोला )।" "रहने दे देवदत्त ! जो चाहे वनमें रहे, जो चाहे गाँवमें रहे, जो चाहे भिक्षा मांगकर खाय, जो चाहे निमंत्रण वाय, जो चाहे फेंके चीथड़ोंको सीकर पहने, जो चाहे गृहस्थोंके दिये हुग ( नये ) वस्त्रको पहने । देवदत्त ! ( वर्षाको छोड़ ) आठ मास तक वृक्षके नीचे रहने की तो अनुगति मैंने दे दी है । और उस मासके ( खाने के ) लिये मैंने अनुमति दे दी है जिसके मन्यन्ध, न यह देखा गया हो, न सुना गया हो, न इसका सन्देह ही किया गया हो (कि यह उनके लिये मारा गया है ) ( देवदत्तने इन वहानेको लेकर संघर्म फूट डाल दी। यह संघ-भेद भी एक संघादि- मन ममना गया ।) -
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