! ७१२।६ ] देवदत्तके सम्मानका हास [ ४८७ भगवान् पूर्वाह्ण समय पहिनकर पात्र-चीवर ले, बहुतसे भिक्षुओंके साथ राजगृहमें पिंडचारके लिये प्रविष्ट हुए। तव भगवान् उसी सळकपर आये। उन फ़ीलवान्ने भगवान्को उस सळकपर आते देखा। देखकर नालागिरि हाथीको छोळकर, सळकपर कर दिया। नालागिरि हाथीने दूरसे भगवान्को आते देखा। देखकर सूळको खळाकर, प्रहृष्ट हो, कान चलाते जहाँ भगवान् थे, उधर दौळा । उन भिक्षुओंने दूरसे नालागिरि हाथीको आते देखा । देखकर भगवान्से कहा-- "भन्ते ! यह चंड, मनुष्य-घातक ना ला गिरि हाथी इस सळकपर आ रहा है, हट जायें भन्ते ! भगवान्, हट जायें सुगत दूसरी वार भी० । तीसरी बार भी० । उस समय मनुष्य प्रासादोंपर, होपर, छतोंपर, चढ़ गये थे। उनमें जो अश्रद्धालु अप्रसन्न, दुर्बुद्धि (=मूर्ख) मनुष्य थे, वह ऐसा कहते थे -"अहो ! महाश्रमण अभिरूप (था, सो) नागसे मारा जायेगा।" और जो मनुष्य श्रद्धालु-प्रसन्न, पंडित थे, उन्होंने ऐसा कहा-“देर तक जी! नाग ' नाग (=वुद्ध) से, संग्राम करेगा। तब भगवान्ने नालागिरि हाथीको मैत्री (भावना) युक्त चित्तसे आप्लावित किया । तब नालागिरि हाथी भगवान्के मैत्री (पूर्ण) चित्तसे स्पृष्ट हो, सूडको नीचे करके, जहाँ भगवान् थे, वहाँ जाकर खळा हुआ। तब भगवान्ने दाहिने हाथसे नालागिरिके कुम्भको स्पर्श (किया)...। "आओ भिक्षुओ! मत डरो। भिक्षुओ! इसका स्थान नहीं० तथागत (परके) उपक्रमसे नहीं (अपनी मौतसे) परिनिर्वाणको प्राप्त हुआ करते हैं।" दूसरी बार भी भगवान्ने नालागिरि० स्पर्श किया । स्पर्शकर नालागिरि हाथीसे गाथाओंमें कहा- "कुंजर! मत नाग'को मारो, कुंजर! नागका मारना दुःख (मय) है। क्योंकि कुंजर! ना ग ' को मारनेवालेकी न यहाँ सुगति होती, न परलोकमें ही॥(२)।। मत मदको मत प्रमादको प्राप्त हो, इसके कारण प्रमादी सुगतिको नहीं प्राप्त होते। तू ही ऐसा कर, जिससे कि तू सुगतिको प्राप्त हो" ।। (३)।। तब ना ला गिरि हाथीने सूंडसे भगवान्की चरण-धूलिको ले शिरपर डाल, जब तक भग- वान्को देवता रहा पीठकी ओरने लौटता रहा । तव नालागिरि हाथी हथसारमें जा अपने स्थान पर खळा हुआ। इन प्रकार नालागिरि हाथीका दमन हुआ। उस समय मनुप्य यह गाथा गाते थे- "कोई कोई दंडसे, अंकुश और कशासे दमन करते थे। महर्पिने बिना दंड विना शस्त्र नागको दमन किया" ।। (४)।। लोग हैरान होते थे-कैसा पापी अलक्षणी देवदत्त है, जो कि ऐमे मद्धिक (तेजस्वी) से महान भाव श्रमण गौतमके वधकी कोशिश करता है ! !' देवदत्तका लाभ-सत्कार नष्ट हो गया, भगवान्का लाभ-सत्कार बढ़ा। (६) देवदत्त के सम्मानका हास उन समय दे व दत्त लान-सत्कारने हीन होनेने घरोंने मांग मांगकर खाता था। लोग हैरान० 'मंग मानयत्रीय प्रमण घरोंने मांग मांग कर खाते हैं ! !' 'न- अगः पापरहित-दछ ।
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।