3 ६१४१] विहारकी चीज़ोंके उपयोगमें क्रम [ ४६५ 'मूल से प्रति - क र्ष णा ई० । 'मा न त्वा ई० । 'मानत्व-चारिक० । 'आह्वा ना । भिक्षुओ ! यह तीन वंदनीय हैं--पीछे उपसम्पन्न द्वारा पहिलेका उपसम्पन्न वन्दनीय है, नाना सहवास वाला वृद्धतर धर्मवादी० । देव-मार-ब्रह्मा सहित सारे लोकके लिये, देव-मनुष्य-श्रमण-ब्राह्मण सहित सारी प्रजाके लिये, तथागत अर्हत् सम्यक-सम्बुद्ध वन्दनीय हैं। -श्रावस्ती (६) जेतवन स्वीकार क्रमशः चारिका करते हुये, भगवान् जहाँ श्रा व स्ती है, वहाँ पहुँचे। वहाँ श्रावस्तीमें भगवान् अनाथ-पि डि क के आराम 'जे त - वन' में विहार करते थे। तब अ ना थ - पिं डि क गृहपति जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया, आकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठ गया। एक ओर वैठे हुये, अनाथ-पिंडिक गृहपतिने भगवान्से कहा- "भन्ते ! भगवान् भिक्षु-संघ-सहित कलको मेरा भोजन स्वीकार करें।" भगवान्ने मौन रह स्वीकार किया। तब अनाथ-पिंडिक० भगवान्की स्वीकृति जान, आसनसे उठ, भगवान्को अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर चला गया। अनाथ-पिंडिकने...उस रातके वीत जानेपर उत्तम खाद्य भोज्य तैयार करवा, भगवान्को काल सूचित कराया० । तब अनाथ-पिंडिक गृहपति अपने हाथसे बुद्ध - सहित भिक्षु - संघ को उत्तम खाद्य भोज्यसे संतर्पितकर, पूर्णकर, भगवान्के पात्रसे हाथ हटा लेनेपर, एक ओर० वैठकर भगवान्से बोला- "भन्ते ! भगवान् ! मैं जेतवनके विषयमें कैसे करूँ ?" "गृहपति ! जेतवन आ ग त - अ ना ग त चा तु दि श सं घ के लिये प्रदान कर दे ?" अनाथ-पिंडिकने ‘ऐसा ही भन्ते !' उत्तर दे, जेतवनको आगत-अनागत चातुर्दिश भिक्षुसंघको प्रदान कर दिया। तब भगवान्ने इन गाथाओंसे अ ना थपिं डि क गृहपति (के दान)को अनुमोदित किया- "सर्दी गर्मीको रोकता है०२। "० मलरहित हो निर्वाणको प्राप्त होता है" ।।(५)। तब भगवान् अनाथपिंडिक गृहपति (के दान)को इन गाथाओंसे अनुमोदितकर आसनसे उठ चले गये। ६४-विहारकी चीजोंके उपयोगका अधिकार आसन-ग्रहणके नियम (१) विहारकी चीजोंके उपयोगमें क्रम उस समय लोग संघके लिये मंडप, सन्थार (=विछौना), अवकाश तैयार करते थे। पड् - वर्गीय भिक्षुओंके शिष्य-भगवान् संघ (की चीज़) के लिये ही वृद्धपनके अनुसार अनुमति दी है, (संघ) उद्देशसे कियेके लिये नहीं-(सोच) बुद्ध-सहित भिक्षु-संघके आगे आगे जा मंडपों, सन्धारों, और अवकाशोंको दखलकर लेते थे—यह हमारे उपाध्यायोंके लिये होगा, यह हमारे आचार्योके लिये और यह हमारे लिये होगा। आयुप्मान् सा रि पुत्र बुद्ध-सहित भिक्षुसंघके पीछे पीछे जाकर, मंडपों, सन्थारों और अवकाशोंके ग्रहणकर लिये जानेपर, अवकाग न मिलनेसे एक वृक्षके नीचे बैठे। तब भगवान्ने रातके भिननारको खांना, आयुप्मान् सारिपुत्रने भी खाँसा।- "कौन है यहाँ ?' "भगवान् ! मैं सारिपुत्र ।" "यह भी एक. दंड है। देखो चुल्ल ६६११२ पृट ४५१ ।
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