६७३।४] तित्तिर-जातक [ ४६३ भगवान् वै शा ली में इच्छानुसार विहार करके, जहाँ श्रा व स्ती है वहाँ चारिकाके लिये चले। उस समय छ - वर्गी य भिक्षुओंके शिप्य, बुद्ध-सहित भिक्षु-संघके आगे आगे जाकर, विहारोंको दखलकर लेते थे, शव्यायें दखलकर लेते थे---"यह हमारे उपाध्यायोंके लिये होगा, यह हमारे आचार्योंके लिये होगा, यह हमारे लिये होगा।" आयुप्मान् सा रि पु ब, बुद्ध-सहित संघके पहुँचनेपर, विहारोंके दखल हो जानेपर, भय्याओंके दखल हो जानेपर, गव्या न पा, किसी वृक्षके नीचे बैठे रहे। भगवान्ने रातके भिनसारको उठकर खाँसा । आयुष्मान् सा रि पुत्र ने भी खाँसा। "कौन यहाँ है ?" "भगवान् ! मैं सारिपुत्र !" "सारि-पुत्र ! तू क्यों यहाँ बैठा है ?" तव आयुष्मान् सारि-पुत्रने सारी वात भगवान्ने कही । भगवान्ने इमी संबंधमें--इसी प्रकरणमें भिक्षु-संघको जमा करवा, भिक्षुओंसे पूछा-- "सचमुच भिक्षुओ! छ-वर्गीय भिक्षुओंके अन्ते वा मी (=शिष्य) बुद्ध-सहित के आगे आगे जाकर दखलकर लेते हैं ?" "सचमुच भगवान् ! " भगवान्ने धिवकारा--"भिक्षुओ! कैसे वह नालायक भिक्षु बुद्ध-सहित संवके आगे० ? भिक्षुओ! यह न अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये है, न प्रसन्नोंको अधिक प्रसन्न करनेके लिये है। बल्कि अ-प्रसन्नोंको (और भी) अप्रसन्न करनेके लिये, तथा प्रसन्नों (=श्रद्धालुओं) मेंसे भी किसी किसीके उलटा (अप्रसन्न) हो जानेके लिये है।' धिक्कार कर धार्मिक कथा कह, भिक्षुओंको संबोधित किया-- (३) अग्रासन अग्रपिंडके योग्य व्यक्ति "भिक्षुओ! प्रथम आसन, प्रथम जल, और प्रथम परोसा ( अ अ - पिंड) के योग्य कौन है ?" किन्ही भिक्षुओंने कहा--"भगवान् ! जो क्षत्रिय कुलसे प्रबजित हुआ हो, वह योग्य है।" किन्हीं ने कहा-"भगवान् जो ब्राह्मण कुलसे प्रव्रजित हुआ है, वह०।" किन्ही ०ने कहा--"भगवान् ! जो गृह - पति (=वैश्य) कुलसे।" किन्हीं ने कहा- "भगवान् ! जो सौ त्रां ति क (मूत्र-पाठी) हो।" चिन्ही ने कहा-"भगवान् ! जो वि न य - धर (=विनय-पाठी) हो।" विन्ही भिक्षुओंने कहा-"भगवान् जो धर्म - क थि क (=धर्मव्याख्याता) हो।" "जो प्रथम ध्यानका लाभी (पानेवाला) हो।" किन्हीं.---"जो द्वितीय ध्यानका लाभी।". . . "जो तृतीय ध्यानका० ।". . ."जो चतुर्थ ध्यान- का ..."जो मो ता पन (स्रोतआपन) हो।"..."जो म कि दा गा मी (=सकृदागामी)।"... "जो अ ना ना मी०।"..."जो अहं त ।"... "जो त्रै विदा हो।"..."जो पड्-अभिज०।" ... (४) तित्तिर जातक तब भगवान्ने निक्षुओंको संबोधित किया-- "पूर्वकाल में निधो ! हिमालय पाममें एक बळा वर्गद था। उसको आश्रयकर, तित्तिर, वानर और हाथी नीन मित रहते थे। वह तीनों एक दूनका गौरव न करते, महायता न करते, साथ जोदिया न वाग्ले हुरे रहते थे। निक्षो! उन मित्राको ऐमा (विचार) हुआ-'अहो ! जानना नाहिये. (पि. हममें कौन सा है). नाकि हम जिन जन्मने वा जाने, उनका सत्कार करें, गौरव पाने माने. ए. और इनकी नी में हैं। किन्ही ).
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