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1 O ५६४१५ ] वस्त्र पहिननेके ढंग [ ४४३ अनुमति देता हूँ शो भ क (=लपेटकर सिलाई), और गुण क (=मृदंगकी भाँति सिलाई) की।" 220 ५-कमरबंदका फंदा छिन जाता था।- • अनुमति देता हूँ वीठ (=विठई) की।” 221 ६-उस समय पड्वर्गीय भिक्षु, सोनेकी भी रूपेकी भी नाना प्रकारकी वी ठ धारण करते थे।०-- जैसे कामभोगी गृहस्थ ।०- "भिक्षुओ! सोने रूपे नाना प्रकार की वीठ नहीं धारण करनी चाहिये, • दुक्कट ० । अनुमति देता हूँ हड्डी०१ शंख और सूतकी।" 222 (४) घुण्डी, मुद्धी १--उस समय आयुप्मान् आ नं द हल्की संघाटी पहिन गाँवमें भिक्षाके लिये गये। हवाके झोंकेने संघाटीको उळा दिया। आयुप्मान् आनंदने आराममें जा भिक्षुओंसे यह बात कही। भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही- ० अनुमति देता हूँ घुडी, मुद्धीकी ।" 223 २-० पड्वर्गीय भिक्षु सोनेकी भी रूपेकी भी नाना प्रकारकी धुंडियाँ धारण करते थे। ०-- जैसे कामभोगी गृहस्थ ।०- "भिक्षुओ ! सोने रूपे नाना प्रकारकी धुंडीको नहीं धारण करना चाहिये, जो धारण करे उसे दुक्कटका दोप हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ हड्डी०१ शंख और सूतकी (पुंडीकी)।" 224 3--उस समय भिक्षु धुंडी भी मुद्धी भी चीवरमें ही लगाते थे, चीवर जीर्ण हो जाता था।०- अनुमति देता हूँ, (चीवरमें) धुंडी और मुद्धीके चकत्तेको लगानेकी।" 225 ४--धुंडी और मुडीके चकत्तेको (चीवरके) छोरपर लगाते थे, कोना खुल जाता था।- अनुमति देता हूँ धुंडीके चकत्तेको अंतमें लगानेकी, मुद्धीके चकत्तेको सात आठ अंगुल भीतर हटकर।" 226 (५) वस्त्र पहिननेके ढंग १-उस समय पङ् व र्गी य भिक्षु गृहस्थों जैसे वस्त्र पहिनते थे--ह स्ति शौं डि करे भी, म त्म्य वा ल क भी, च तु कर्ण क , ता ल वृन्त क', श त व ल्लि क भी। लोग हैरान० होते थे- जमे कामभोगी गृहस्थ ०१०- "भिक्षुओ ! गृहस्थोंकी भाँति-हस्तिशौंडिक, मत्स्यवालक, चतुष्कर्णक, तालवृन्तक,शतवल्लिक- वन्त्र नहीं पहिनना चाहिये, ० दुक्कट ०।" 227 २--उस समय पड्वर्गीय भिक्षु कछनी काछते थे।०--जैसे कि राजाकी मुंडवट्टी (=वाहक) । 0- o 44 9 पृष्ठ ४४१ (211)।

  • चोल (देश) की स्त्रीकी भाँति नाभीसे नीचे तक लटकाना (---अट्ठकथा)।

३ किनारी और छोरको चुनकर मछलीकी पूंछकी भाँति पहिनना। ऊपर दो, नीचे ते इस प्रकार चारों कोनोंको दिखाते कपळोंका पहिनना । 'तालके पत्तेकी भाँति चुनकर लटकाना। 'नकळों चुनावोंको दिखाते पहिनना ।