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५७२।६ ] वड्ढ लिच्छवीके लिये पात्र ढाँकना [ ४३५ 'भन्ते ! यह योग्य नहीं०१ पानी जलतासा मालूम पळता है। आर्य दर्भमल्लपुत्रने मेरी स्त्री को दूपित किया। "अच्छा आर्यो!"-०१ । "भन्ते! जन्मसे लेकर स्वप्नमें भी मैथुन सेवन करनेको मैं नहीं जानता, जागतेकी तो वात ही क्या?" तब भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "तो भिक्षुओ! संघ वड्ढ लिच्छवी पुत्रका पत्त-निकुज्जन करे । "भिक्षुओ! आठ वातोंसे युक्त उपासकके लिये, पत्तनिकुज्जन (-उसकी भिक्षा आनेपर उसे न लेनेपर पात्रको मूंद दिया जाय) करना चाहिये-(१) भिक्षुओंके अलाभ (=हानि) के लिये प्रयत्न करता है; (२) भिक्षुओंके अनर्थके लिये प्रयत्न करता है; (३) भिक्षुओंके अवास (=न रहने) के लिये प्रयत्न करता है; (४) भिक्षुओंका आक्रोश (निंदा) परिहास करता है; (५) भिक्षुओंकी आपसमें फूट कराता है; (६) वुद्धकी निंदा करता है; (७) धर्मकी निन्दा करता है; (८) संघकी निन्दा करता है। भिक्षुओ! इन पाँच० । 178 "और भिक्षुओ ! इस प्रकार पत्त-निक्कुज्जन करना चाहिये-चतुर समर्थ भि क्षु संघको सूचित करे। "क. ज्ञप्ति ० । ख. अनु श्रावण ०। "ग. धारणा-'संघने व ड्ढ लिच्छवीके लिये पात्र ढाँक दिया । संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" तव आयुष्मान् आनन्द पूर्वाह्न समय पहिन कर पात्र चीवर ले जहाँ वड्ढ लिच्छवीका घर था, वहाँ गये । जाकर वड्ढ लिच्छवीसे यह वोले- "आवुस वड्ढ ! संघने तेरे लिये पात्र ढाँक दिया, संघके उपयोगके तुम अयोग्य हो ।" तव वड्ढ लिच्छवी-'संघने मेरे लिये पात्र ढाँक दिया, मैं संघके उपयोगके अयोग्य हूँ'- (नोच) वहीं मूर्छित हो गिर पळा । तव वड्ढ लिच्छवी मित्र-अमात्त्य, जाति-विरादरीवाले वड्ढ लिच्छवीसे यह बोले- “वस आवुस वड्ढ ! मत शोक करो, मत खेद करो। हम भगवान् और भिक्षु-संघको मनावेंगे।" तव वड्ढ लिच्छवी स्त्री-पुत्र सहित, मित्र-अमात्त्य जाति-विरादरीवालों सहित भीगे वस्त्रों भीगे केशों सहित, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान्के पैरों में शिरसे पळकर भगवान्से यह बोला- "भन्ते ? वाल (=मूर्ख) सा, मूढ़सा, अचतुरसा हो मैंने जो अपराध किया ; जोकि मैंने आर्य दर्भ, मल्लपुत्रको निर्मूल शील-भ्रष्टताका दोप लगाया; सो भन्ते ! भगवान् भविष्यमें संवर (-रोक करने) के लिये मेरे उस अपराधको अत्ययके तौरपर स्वीकार करें।" "आवुस ! जो तूने वालसा हो अपराध किया०। चूंकि आवुस ! तू अपराधको अपराधके तौर पर देखकर धर्मानुसार प्रतीकार करता है, इसलिये हम उसे स्वीकार करते हैं। आवुस ! वद आर्य विनयमें यह वृद्धि (की वात) है, जो कि (किये) अपराधको अपराधके तौरपर देखकर धर्मानुसार (उसका) प्रतीकार करना, और भविष्यके संवरके लिये प्रयत्नशील होना ।" तब भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "तो भिक्षुओ! संघ वढ लिच्छवीके लिये पात्रको उघाळ दे। 'देखो चुल्ल० ४६२।१ पृष्ठ ३९५-६ ।