41 ४२६ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५७१।१३ (१२) शस्त्र आदि १-उस समय संघको दंड-स त्थ क (=भुजाली) मिला था। ०।- "०अनुमति देता हूँ, दंड-सत्थककी।"57 २-उस समय पड्वर्गी य भिक्षु सोने-रूपे (आदि) तरह तरहके सत्य क - दंड ( हथियार) को धारण करते थे। जैसे कामभोगी गृहस्थ । भगवान्० ।- "भिक्षुओ! सोने-रूपे (आदि) तरह तरहके सत्थक-दंडोंको नहीं धारण करना चाहिये, दुक्कट० । भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ हड्डी, दाँत, सींग, नल (=नरकट), बाँस, काठ, लाख, फल, लोह (=ताँव), शंखनाभि (शंख) के शस्त्रके दंडोंकी।" 58 ३-उस समय भिक्षु मुर्गेकी पाँखसे भी, बाँसकी खपीचसे भी चीवरको सीते थे, चीवर ठीकसे न सिलता था। ०।- "अनुमति देता हूँ, सूईकी।"59 ४-सूइयाँ मूर्चा खा जाती थीं।- "०अनुमति देता हूँ, सूई (रखने के लिये) नालीनालिका की।" 60 नालिकामें होनेपर भी मुर्चा खा जाती थीं।- "०अनुमति देता हूँ किण्ण (चूर्ण) से भरनेकी।" 61 ५-किण्ण होनेपर भी मुर्चा खा जाती थीं। "०अनुमति देता हूँ सत्तूसे भरनेकी।" 62 ६-सत्तूसे भी मुर्चा खा जाती थीं।- "०अनुमति देता हूँ, स रि त क (=पापाण-चूर्ण) की।" 63 ७-सरितकसे भी मुर्चा खा जाती थीं।- "०अनुमति देता हूँ, मोमसे लपेटनेकी।" 64 ८-सरितक टूट जाता था।- "०अनुमति देता हूँ सरितककी, सि पा टि का (=गाँदकी)की।" 65 (१३) कठिन-चीवर (क). क ठिन का फै ला ना-उस समय वहाँ कील गाळकर (उससे) वाँध चीवरको मीते धे, चीवर बेढंगे कोनोंवाला हो जाता था। ०।- 'अनुमति देता हूँ कठिन', कठिनकी रस्सीकी, उसमें बाँधकर चीवर सीना चाहिये। 66 ऊभळ-बाभळ (भूमि) पर क ठिन को फैलाते थे, कठिन टूट जाता था। ०।- "ऊभळ-बाभळ (भूमि) पर कठिनको नहीं फैलाना चाहिये, ०दुक्कट ०।" 67 भूमिपर क ठिन को फैलाते थे, कठिनमें धूल लग जाती थी। ०।- "० अनुमति देता है, तृणके विछौनेकी।" 68 कठिनका छोर निर्बल हो जाता था । ०।-- "अनुमति देता हूँ, हवा आनेके रुव परि भंड (ओट) के रग्बनेकी ।"69 (ब). कठिन की सिलाई-कठिन पूरा न हो सकता था।- "अनुमति देता हूँ, दंड कठिन की (चौवटा), पि द ल क (=ग्यपाच), , सीनेका फट्ठा।
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