1 ४२२] ४-चुल्लवग्ग [ ५६११० गुप्ती अपनी रक्षाके लिये आत्म-प रि त्र (=०रक्षावाक्य) करनेकी। 26 २--"और भिक्षुओ! इस प्रकार (परित्र-प रित्त) करनी चाहिये- वि रु पा क्ष से मेरी मित्रता (है), ए रा प य से मेरी मित्रता, छ व्या पुत्त से मेरी मित्रता, कहा-गो त म क से मेरी मित्रता ॥ (१) ।। अपादकों' से मेरी मित्रता (है), द्विपादकों से मेरी मित्रता । चौपायोंसे मेरी मित्रता, बहुपदों से मेरी मित्रता ॥(२)॥ मुझे अपादक पीळा न दें, मुझे द्विपादक पीळा न दें। चतुष्पद मुझे पीळा न दे, मुझे बहुप्पद पीळा न दें ॥(३)। सभी सत्त्व-सभी प्राणी और सभी केवल भूत । सभी कल्याणको देखें, किसीके पास बुराई न जावे ॥(४)। "बुद्ध अप्रमाण (=जिनका परिमाण नहीं कहा जा सकता) है, धर्म अप्रमाण है, संघ अप्रमाण है; साँप, बिच्छू, कनखजूरा, मकळी, छिपकली, चूहे-(आदि) सभी सरीसृप ( रेंगनेवाले प्राणी) प्रमाणवाले (=परिमित) हैं। मैंने रक्षा कर ली, मैंने परि त कर लिया; भूत (=प्राणी) चले जावें । सो मैं भगवान्को नमस्कार करता हूँ, सातों सम्यक् संबुद्धोंको नमस्कार करता हूँ।" (९) लिंगच्छेदन उस समय एक भिक्षुने वासनासे पीड़ित हो अपने लिंगको काट दिया। भगवान्से यह बात कही। "भिक्षुओ ! दूसरेको काटना था, उस मोघपुरुष (=निकम्मे आदमी)ने दूसरेको काट दिया। "भिक्षुओ! अपने लिंगको न काटना चाहिये, जो काटे उसे थु ल्ल च्च य का दोष हो।" 27 (१०) पात्र (क) पूर्व क था--उस समय रा ज गृह के श्रेष्ठीको एक महार्घ चन्दन-सारकी चन्दन गाँठ मिली थी। तब राजगृहके श्रेष्ठीके मनमें हुआ-'क्यों न मैं इस चन्दनगाँठका, पात्र खरदवाऊँ; चूरा मेरे कामका होगा, और पात्र दान दूंगा।' तव राजगृहके श्रेष्ठीने उस चन्दन-गाँउका पात्र खरदवाकर, सीकमें रख, वाँसके सिरेपर लगा, एकके ऊपर एक बाँसोंको बंधवाकर कहा-"जो श्रमण ब्राह्मण अर्हत् या ऋद्धिमान् हो (वह इस दान) दिये हुए पात्रको उतार ले ।" पूर्ण काश्यप जहाँ राजगृहका श्रेष्ठी रहता था, वहाँ गये। और जाकर राजगृहके श्रेष्ठीसे बोले- "गृहपति ! मैं अर्हत हूँ , ऋद्धिमान् भी हूँ। मुझे पात्र दो।" "भन्ते ! यदि आयुष्मान् अर्हत् और ऋद्धिमान् हैं, तो दिया ही हुआ है, पात्रको उतार तव मक्ख ली गो साल (-मस्करी गोशाल)। अजित के श-क म्ब ली। प्रक्रुध का त्या य न० । सं ज य वे ल्ल ट्ठि-पुत्त० । नि गं ठ ना थ - पुत्त० । जहाँ राजगृहका श्रेष्ठी था, वहाँ गये। जाकर राजगृहके श्रेष्ठीसे बोले-“गृह-पति ! मैं अर्हत् हूँ, और ऋद्धिमान् भी, मुझे पात्र दो।" "भन्ते ! यदि आयुष्मान् अर्हत् ।।" उस समय आयुष्मान् मौ द् ग ल्या य न और आयुष्मान् पिं डोल भा र द्वाज, पूर्वाह्न समय सु-आच्छादित हो, पात्र चीवर ले राज-गृहमें पिंड (=भिक्षा) के लिये प्रविष्ट हुए। तब आयुप्मान् पिंडोल भारद्वाजने आयुष्मान् मौद्गल्यायनसे कहा- पबिना रीढ़वाले सर्प। २दो परवाले मनुप्य । कनखजूरा आदि।
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