५९१८ ] सर्पसे रक्षा [ ४२१ (६) शौकके वस्त्र उस समय पड्वर्गीय भिक्षु बा हि र लो मी (-वाहर रोम निकला ओढ़ना) । ऊनी (चद्दर) को धारण करते थे। ० कामभोगी गृहस्थ । ० भगवान् ० ।-- "भिक्षुओ ! बाहिर लोमी ऊनीको नहीं धारण करना चाहिये, ० दुक्कट ०।" 22 (७) आम खाना १-उस समय म ग घ रा ज सेनिय बिम्बिसारके वागमें आम फले हुए थे। मगधराज सेनिय बिम्बिसाग्ने अनुमति दे रक्खी थी--'आर्य (लोग) इच्छानुसार आम खावें ।' पड्वर्गीय भिक्षुओंने कच्चे आमोहीको तुळवाकर खा डाला । मगधराज ०को आमकी ज़रूरत हुई, उसने आदमियोंसे कहा- "जाओ, भणे ! आरामसे आम लाओ !" "अच्छा देव !"--(कह) मगधराज० को उत्तर दे, आराममें जा उन्होंने वागवानोंसे यह कहा- "भणे ! देवको आमोंकी ज़रूरत है, आम दो !' "आर्यो ! आम नही है, कच्चे ही आमोंको तुळवाकर भिक्षुओंने आम खा डाले।" तब उन मनुष्योंने जाकर मगधराज से वह बात कह दी।- "भणे ! अच्छा हुआ, आर्योने ग्वा लिया । और भगवान्ने (खानेकी) मात्रा भी कही है ।" लोग हैरान होते थे—'कैसे शाक्यपुत्रीय श्रमण मात्राको विना जाने राजाके आम खाते हैं !' भगवान्ने यह बात कही ।- "भिक्षुओ! आम नहीं खाना चाहिये, जो खाये उमे दुक्कटका दोप हो ।" 23 २-उस समय एक पू ग' ने संघको भोज दिया था, दालमें आमकी फारियाँ (=पेशिका) भी डाली हुई थी। भिक्षु हिचकिचाते उसे नहीं ग्रहण करते थे।- "भिक्षुओ ! ग्रहण करो, खाओ; अनुमति देता हूँ, आमकी फारियोंकी।" 24 --उस समय एक पूग ने संघको भोज दिया था। वह आमोंकी फारी नहीं बना सके, इसलिये पगेगनेव बवत पुरे आमको ले पातीमें फिरते थे। भिक्षु हिचकिचाते न ग्रहण करते थे ।- "भिक्षुओ ! ग्रहण करो, खाओ। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ पाँच श्रमणोंके योग्य फलको खाने की आग छिलका उतारे, हथियारमे छिले, नवने छिले, वेगुठलीके, और पाँचवें निव्वट्ट वीज ( बीजवाला फल) को। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ इन पांच श्रमणोंके योग्य फलको खानेकी।" 25 (८) सर्पसे रक्षा
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