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-01 11 (1 9) ४०६ ] ४-चुल्लवग्ग [ ४१३।२ करती थीं। छ न्न भिक्षु भिक्षुणियोंकी ओर हो भिक्षुणियोंके साथ विवाद करता, भिक्षुणियोंका पक्ष ग्रहण करता था। जो वह अल्पेच्छ० भिक्षु थे; वह हैरान० होते थे- "सचमुच भिक्षुओ ! ०? "(हाँ) सचमुच भगवान् ! ० फटकारकर भगवान्ने धार्मिक कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया- (१) अधिकरणोंके भेद "भिक्षुओ! यह चार अधिकरण हैं-(क) विवाद-अधिकरण; (ख) अनुवाद-अधिकरण; (ग) आपत्ति-अधिकरण; (घ) कृत्य-अधिकरण । 96 (क). वि वा द-अ धि क र ण-"क्या है विवाद-अधिकरण?-जब भिक्षुओ ! भिक्षु यह धर्म है या अधर्म है।' 'यह विनय है या अविनय ।' 'यह तथागतका लपित=भापित है, तथागतका लपित =भाषित नहीं है', 'तथागतने ऐसा आचरण किया है, आचरण नहीं किया', 'तथागतने विधान किया है, तथागतने विधान नहीं किया है', 'आपत्ति (अपराध) है, आपत्ति नहीं है', 'लवुक (छोटी) आपत्ति है, गुरुक (बड़ी) आपत्ति है', 'सावशेप (=कुछ ही) आपत्ति है, निरवशेष (संपूर्ण) आपत्ति है', दुठुल्ल (=दुःस्थौल्य- पाराजिक, संघादिसेस)आपत्ति है, अदुटुल्ल आपत्ति है'-वहाँ जो भंडन- कलह- विग्रह-विवाद, नानावाद (=विरुद्धवाद), अन्यथावाद (=उल्टावाद) नाराज़गीका व्यवहार, मेधक (= कटुभाषी) है; यह कहा जाता है वि वा द-अ वि क र ण । 97 (ख) अ नु वा द - अ धि क र ण-"क्या है अनुवाद-अधिकरण ?--जब भिक्षुओ ! भिक्षु (दूसरे) भिक्षुको शीलभ्रष्ट होने, आचारभ्रष्ट होने, दृष्टि (=सिद्धान्त)-भ्रप्ट होने, बुरी आजीव (= रोजी) वाला होनेको अनुवाद (दोपारोपण) करते हैं, वहाँ जो अनुवाद=अनुवदन-अनु- ल्लपन-अनुभणन, अनुसंप्रवंकन', अभ्युत्सहनता, अनुबलप्रदान होता है; यह कहा जाता है अ नु वा द - अ धि क र ण। 98 (ग). आ प त्ति - अ धि क र ण-"क्या कहा जाता है, आपत्ति-अधिकरण ?--गाँचों आपत्ति-स्कंध (=दोपोंके समुदाय) ) आपत्ति - अधिकरण हैं, सातों आपत्ति-स्कंध आ पत्ति-अ धि- क र ण हैं । 99 (घ). कृ त्य-अ धि क र ण-"क्या है आपत्ति-अधिकरण ?--जो संघके कृत्य करणीय, अवलोकनकर्म, ज्ञप्ति-कर्म', ज्ञ प्ति-द्वि ती य क र्म', ज्ञ प्ति-च तु र्थ क म हैं; यह कहा जाता है, कृत्य - अधिक रण।" 100 (२) अधिकरणोंके मूल क. वि वा द-अ धि क र णों के मूल="विवाद-अधिकरणका क्या मूल है ? (क) छ , 'काय, वचन, चित्तसे उसीमें झुक रहना । दोषारोपणमें उत्साह । पहिली वातको कारण बता पिछली वातके लिये बल देना। ४संघकी सम्मति लेते वक्त, प्रस्तावकी सूचनाको ज्ञप्ति कहते हैं। ५किसी असाधारण परिस्थितिमें एक ज्ञप्ति और एक अनुश्रावणके बादही संघको सम्मति लेली जाती है, उसे ज्ञप्ति-द्वितीयकर्म कहते हैं । साधारण परिस्थितिमें पहिले एक ज्ञप्ति फिर तीन अनुश्रावण करके मंघको मम्मति ली जाती है, इसे ज्ञप्ति-चतुर्थ कर्म कहते हैं।