1 ३९६ ] ४-चुल्लवग्ग [ ४७२।१ “साधु, साधु दर्भ! तो दर्भ! तू संघके शयन-आसनका प्रबंध कर, और भोजनका उद्देश कर।" "अच्छा, भन्ते !"- (कह) आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रने भगवान्को उत्तर दिया । तब भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें धर्म संबंधी कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया- "तो भिक्षुओ! संघ दर्भ मल्लपुत्रको संघके शयन-आयसनका प्रबंधक और भोजनका नियामक (=उद्देशक) चुने। 20 और भिक्षुओ ! इस प्रकार चुनाव करना चाहिये--पहिले दर्भ मल्लपुत्रसे जाँचकर चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे-- "क. ज्ञ प्ति---'भन्ते ! संघ मेरी सुने, यदि संघको पसन्द हो, तो संघ आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रको शयन-आसनका प्रज्ञापक (=प्रबंधक) और भोजनका उद्देशक चुने--यह सूचना है। "ख. अनुश्रा व ण- -(१) 'भन्ते ! संघ मेरी सुने, संघ आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रको शयन- आसनका प्रज्ञापक और भोजनका उद्देशक चुन रहा है, जिस आयुष्मान्को आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रका शयन-आसन-प्रज्ञापक चुना जाना पसन्द है, वह चुप रहे, जिसको पसन्द नहीं है वह बोले । "(२) भन्ते! संघ मेरी सुने छ । "(३) 'भन्ते ! संघ मेरी सुने छ । “ग. धा र णा-'संघने आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रको गयन-आसन-प्रज्ञापक (और) भोजन- उद्देशक चुन लिया। संघको पसन्द है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" संघ द्वारा चुन लिये जाने पर आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्र हिस्सा हिस्सा करके भिक्षुओंका एक एक स्थानपर शयन-आसन प्रज्ञापित करते थे। (१) जो भिक्षु सूत्रा न्ति क (- बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सूत्रोंको कंठ रखनेवाले) थे, (यह सोचकर कि) वह एक दूसरेसे मिलकर सूत्रोंका संगायन करेंगे, उनका शयन- आसन एक जगह प्रज्ञापित करते थे। (२) जो भिक्षु वि न य - ध र (=भिक्षु नियमोंको कंठ रखनेवाले) थे, (यह सोचकर कि) वह एक दूसरेके साथ वि न य का निश्चय करेंगे, उनका शयन-आमन एक जगह प्रज्ञापित करते थे। (३) जो धर्म क थि क (= बुद्धके उपदेशोंकी कथा कहनेवाले) थे, (यह सोच- कर कि) वह एक दूसरेके साथ धर्म-विषयक संवाद करेंगे, उनका शयन-आसन एक जगह प्रजापित करते थे। (४) जो भिक्षु ध्यानी (= योगी) थे, (यह सोचकर कि) वह एक दूसरेके (= ध्यानमें) वाया न देंगे, ०। (५) जो भिक्षु फ़जूलकी बातें करनेवाले, बहुत कायिक कर्म (- दंड) वाले थे, (यह सोचकर कि) यह आयुप्मान् रातको यहाँ रहेंगे, ० । (६) जो भिक्षु विकाल (- अपराह्न) में आया करते थे, (यह सोचकर कि) यह आयुप्मान् यह जान विकालमें आते हैं, कि हम आयुप्मान् दर्भ मल्लपुत्रकी दिव्यशक्ति (=ऋद्धिप्रातिहार्य) को देखेंगे, ते जो धा तु की स मा पति (- एक प्रकारका व्यान) करके उसीके प्रकाशमें उनका भी शयन-आसन प्रज्ञापित करते थे। वह आकर आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्री कहते थे--'आवुस द्रव्य ! हमारा भी शयन-आसन प्रजापित करो।' उन्हें आयुप्मान् दर्भ मल्लपुत्र, यह कहते थे—'कहाँ आयुप्मान् चाहते हैं, कहाँ प्रजापित कम ?' वह जानबूझ कर बतलाते थे-~ 'आवुस द्रव्य ! हमारा गृध कू ट पर शयन-आसन प्रज्ञापित करो।' ' हमारा चौ र प्रपात पर ० ।' '. हमारा ऋपि गिरि की का ल गि ला पर ० । '० हमारा वै भा र (पर्वत) के पाम सा त पणि गु हा में ' । '• हमारा सी त व न के सर्प गौं डि क प्रा ग्भा र (मापसोंडिक पहार) पर ' । '० गीत म- कन्द रा में ०' । '० हमारा क पो त कन्द रा में ०' । '० तपो दा रा म में ' । '• जी व क के आम्रवन- में '। ' म द्र कुक्षि मृ ग दा व में ' । आयुष्मान् दर्भ मल्टपुत्र ते जो धा तु की म मा पति मे जान, अंगुलीमें आग लगी जैसे उनके आगे आगे जाते थे। वह उसी (तेजो धातुकी ममापत्तिके) प्रकागमें आयुप्मान् दर्भ मल्लपुत्रके पीछे पीछे जाते थे । आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्र इस प्रकार उनका शयन-आसन
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४५७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।