। 1 1 1 ३०१।१४ ] छ दिन-रातका मानत्त्व [ ३७५ "ग. धा र णा-'संघने उदायी भिक्षुको ० पाँच दिनवाला परिवास दिया । संघको पसंद है इसलिये चुप है-- ऐसा मैं इसे समझता हूँ' ।" (२) बोचमें फिर उसी दोषके लिये मूलसे-प्रतिकर्षण उन्होंने परिवासके बीचमें जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी आपत्ति की। उन्होंने भिक्षुओंसे कहा- "आवसो ! मैंने ० पांच दिनवाले प्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी आपत्ति की थी। संघने० पाँच दिनवाला परिवास दिया। सो मैंने परिवासके बीच में जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी आपत्तिकी है; मुझे कैसा करना चाहिये ?" भगवान्से यह वात कही ।- "तो भिक्षुओ ! संघ उदायी भिक्षुको एक आपत्तिके बीचमें जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र- त्यागके लिये मू ल से प्रति कर्षण करे । 7 "और भिक्षुओ! इस प्रकार मूलसे-प्रतिकर्पण करना चाहिये।--वह उदायी भिक्षु संघके पास जा० यह कहे- 'मैंने भन्ते ! ० पाँच दिनवाले प्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्ति की ।० संघने पाँच दिन वाला परिवास दिया । परिवासके बीचमें मैंने ० अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्तिकी । सो मैं भन्ते ! संघसे एक आपत्तिके बीच जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागको आपत्तिके लिये मूल से प्रति कर्षण (दंड) माँगता हूँ। (दूसरी वार भी) ०। (तीसरी वार भी) ०। । "धारणा--'संघने उदायी भिक्षुको० एक आपत्तिके लिये मूल से प्रति क ष ण (दंड) दे दिया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" ( 3 ) फिर उसी दोषके लिये मूलसे-प्रतिकर्षण उसने परिवास समाप्त कर मानत्वके योग्य होते हुए बीचमें जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र- त्यागकी एक आपत्ति की। उसने भिक्षुओंसे कहा- "आवुसो ! मैंने० पाँच दिनवाले प्रतिच्छन्न शुत्र-त्यागकी एक आपत्ति की।० संघने ० पाँच दिनवाला परिवास दिया। मैने पग्दिासके बीचमें० अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्ति की । मंघने मूलने-प्रतिकर्पण (दंड) दिया । सो परिवास पूरा करके मा न त्व के योग्य हो वीचमें मैंने जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्ति की। मुझे कैसे करना चाहिये ?" भगवान्ने यह बात कही- "तो भिक्षुओ ! उदायी भिक्षुको वीचमें जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्तिके लिये मंघ मूलमे-प्रतिकर्पण दंड करे । 8 "और भिक्षुओ ! इस प्रकार मूल से प्रनि कर्पण (दंड) करना चाहिये-०१ 'ग. धा र णा-'संघने उदायी भिक्षुको० एक आपत्तिके लिये मूल से प्रति कर्पण दंड दे दिया । संघको पनंद है, इन लिये चुप है-ऐना मैं इसे समझता हूँ।" (४) तीनों दोषोंके लिये छ दिन-रातका मानत्त्व उसने परिवान पूराकर • भिक्षुओंसे कहा- मानत्त्व देनेकी तरह यहाँ भी सू च ना और अन श्रा व ण पढ़ना चाहिये; “छ रातका मानत्व"को जगह “मूलसे-प्रतिकर्षण" पढ़ना चाहिये । चुल्ल ३६१। क, पृष्ठ ३७२-३ ।
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