१०९१९ ] एकान्त निवासका आनन्द [ ३३३ उसे (भरकर) रख देता है । यदि वह उससे होने लायक नहीं होता तो हाथके इशारेसे, हाथके संकेत (=हत्य-विलंघक)से दूसरोंको बुलाकर, पानीके घळे या पीनेके घळेको (भरकर) रखवाता है। भन्ते ! हम उसके लिये वाग्-युद्ध नहीं करते । भन्ते ! हम पाँचवें दिन सारी रात धर्म-सम्बन्धी कथा करते बैठते हैं। इस प्रकार भन्ते ! हम प्रमाद-रहित०।" "साधु, साधु, अनुरुद्धो ! अनुरुद्धो ! इस प्रकार प्रमाद-रहित, निरालस, संयमी हो विहरते, क्या तुम्हें उत्तर-मनुष्य-धर्म अलमार्य-ज्ञान-दर्शन-विशेप अनुकूल-विहार प्राप्त है ?" ४-पारिलेय्यक तब भगवान् आयुप्मान् अ न रु द्ध, आयुष्मान् नं दि य, और आयुष्मान् कि म्बि ल को धार्मिक कथा द्वारा समुत्तेजित, सम्प्रहर्पितकर, आसनसे उठ जिधर पा रि ले य्य क है उधर चारिकाके लिये चलपळे । क्रमशः चारिका करते जहाँ पा रि ले य्य क है वहाँ पहुँचे । वहाँ भगवान् पा रि ले य्य क में र क्षित व न-खंडके भ द्र शा ल (वृक्ष) के नीचे विहार करते थे। (९) एकान्त निवासका-आनन्द तद एकान्तमें स्थित हो विचारमग्न होते समय भगवान्के चित्तमें यह विचार हुआ-'मैं पहले उन झगळा, कलह, विवाद, बकवाद और संघमें अधिकरण ( मुकदमा) पैदा करनेवाले कौशाम्बीके भिक्षओंसे आकीर्ण (= घिरा) हो अनुकूलताके साथ नहीं विहार कर सकता था। सो मैं अब उन ० को गाम्बी के भिक्षुओंसे अलग, अकेला, अद्वितीय हो अनुकूलताके साथ विहार कर रहा हूँ। एक हस्तिनाग ( हाथीका पट्टा) भी हाथी, हथिनी, हाथीके कलभ (=तरण) और हाथीके छउआ ( छाप, गाव) से आकीर्ण हो विहरता था और हाथीके छउआ (छापः शावक)से आकीर्ण हो विहरता था । शिरकटे तृणोंको खाता था । टूटी-भाँगी ... शाखाओं ... को (वह) खाता था । मैले पानीको पीता था । अवगाह (=जलाशय) उतर जानेपर हथिनियाँ उसके शरीरको रगळती चलती थीं। (ऐसे) आकीर्ण (हो) (वह) दुखसे अनुकूलतासे विहार करता था। तव उस महागजको हुआ, इस वक्त में हाथी ०, आकीर्ण ० हूँ । क्यों न मैं गणसे अकेला छ ? तब वह हस्ति-नाग यूधसे हटकर, जहाँ पारिलेय्यक-रक्षित वन-खंड भद्र-शाल-मूल था, जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया । वहाँ आकर वह नाग जो हरित स्थान होता था, उसे अहरित-करता था। भगवान्के लिये मूळसे पानी ला, पीनेका (पानी) रखता था । तव एकान्तस्थ ध्यानस्थ भगवान्के मनमें यह वितर्क उत्पन्न हुआ-मैं पहिले भिक्षुओं ० से आकीर्ण विहरता था, अनुकूलतासे न विहरता था । सो मैं अब भिक्षुओं ० से अन्-आकीर्ण . विहर रहा हूँ। अन्-आकीर्ण हो, सुखसे, अनुकूलताने विहार कर रहा हूँ। उस हस्ति-नागको भी मनमें यह वितर्क उत्पन्न हुआ-मैं पहिले हाथियों ० अन्-आकीर्ण सुखसे अनुकूलमे विहर रहा हूँ। तव भगवान्ने अपने प्र-विवेक (= एकान्त मुन्व) को जान, और (अपने) चित्तसे उस हस्ति-नागके चित्तके वितर्कको जानकर, उसी समय यह उदान कहा- "हरीन जैसे दाँतवाले हस्ति-नागसे नाम (बुद्ध) का चित्त समान है, जो कि वनमें अकेला रमण करता है।" ५-श्रावस्ती नव भगवान् पा रिले य्य क में इच्छानुसार विहारकर, जिधर था व स्ती थी, उधर चारिकाके 'देखो पृष्ठ ९ टि।
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३९२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।