? -बस २६८ ] ३-महावग्ग [ ८१११ "आचार्य ! इस श्रेप्ठि-भार्याको सात वर्षका गिर-दर्द है, आचार्य ! जाओ थेप्ठिभायांकी चिकित्सा करो।" तब जीवक०ने जहाँ श्रेष्ठि गृहपतिका मकान था, वहाँ. . .जाकर दौवारिकको हुकुम दिया- "भणे ! दौवारिक ! श्रेष्ठि भार्याको कह-'आयें ! वैद्य आया है, वह तुम्हें देखना चाहता है।" "अच्छा आर्य !'...कह दौवारिक...जाकर थेष्ठि-भार्यासे बोला- "आयें ! वैद्य आया है, वह तुम्हें देखना चाहता है।" "भणे दौवारिक ! कैसा वैद्य है ?' "आर्ये ! तरुण (=दहरकं) है ?" "वस भणे दौवारिक ! तरुण वैद्य मेरा गया करेगा? बहुत बळे बळे दिगन्त-विख्यात वैद्य ०।" तब वह दौवारिक जहाँ जीवक कौमार-भृत्य था, वहाँ गया। जाकर. . . . . .बोला- "आचार्य ! श्रेष्ठि-भार्या (= सेठानी) ऐने कहती है-' दौवारिक ! ०। “जा भणे दौवारिक ! सेठानीको कह–आयें ! वैद्य ऐसे कहता है-अयें ! पहिले कुछ मत दो, जव अरोग हो जाना, तो जो चाहना सो देना।" "अच्छा आचार्य !". दीवारिकने. श्रेप्ठि-भार्यासे कहा-आयें ! वैद्य ऐसे कहता है ०।" "तो भणे ! दीवारिक ! वैद्य आवे।" "अच्छा अय्या!" ..जीवको...कहा--"आचार्य ! सेठानी तुम्हें बुलाती है।" जीवक० सेठानीके पास जाकर,...रोगको पहिचान, सेठानीले बोला- "अय्या ! मुझे पसर भर घी चाहिये।" सेठानीने जीवक०को पसर भर घी दिलवाया। जीवक ने उस पसर भर घीको नाना दवाइयोंसे पकाकर, सेठानीको चारपाईपर उतान लेटवाकर नथनोंमें दे दिया। नाकसे दिया वह घी मुखते निकल पळा। सेठानीने पीकदानमें थूककर, दासीको हुक्म दिया- "हन्द जे! इस घीको बर्तनमें रख ले।" तव जीवक कौमार-भृत्यको हुआ—'आश्चर्य ! यह घरनी कितनी कृपण है, जो कि इस फेंकने लायक घीको वर्तनमें रखवाती है। मेरे बहुतसे महाघ औपध इसमें पळे हैं, इसके लिये यह क्या देगी?' तब सेठानीने जीवक०के भावको ताळकर, जीवक०को कहा:- "आचार्य ! तू किसलिये उदास है।" "मुझे ऐसा हुआ-आश्चर्य ! ०।" "आचार्य ! हम गृहस्थिने (आगारिका) हैं, इस संयमको जानती हैं। यह घी दासों कम- करोंके पैरमें मलने, और दीपकमें डालनेको अच्छा है। आचार्य तुम उदास मत होओ। तुम्हें जो देना है, उसमें कमी नहीं होगी।" तब जीवकने सेठानीके सात वर्षके शिर-दर्दको, एक ही नाससे निकाल दिया। सेठानीने अरोग हो जीवकको० चार हजार दिया। पुत्रने 'मेरी माताको निरोग कर दिया' (सोच) चार हजार दिया। बहूने ‘मेरी सासको निरोग कर दिया' (सोच) चार हजार दिया। श्रेष्ठि गृहपतिने 'मेरी भार्याको निरोग कर दिया' (सोच) चार हजार, एक दास, एक दासी, और एक घोड़ेका रथ दिया। तब जीवक उन सोलह हजार, दास, दासी और अश्वरथको ले जहाँ राजगृह था, उधर चला। क्रमशः जहाँ राजगृह, जहाँ अभय-राजकुमार था, वहाँ गया। जाकर अभ य - राजकुमारसे बोला- "देव ! यह–सोलह हजार, दास, दासी और अश्व-रथ मेरे प्रथम कामका फल है। इसे देव ! पोसाई (=पोसावनिक) में स्वीकार करें।" !
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