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२५० । ३-महावग्ग [ Gno तव मेंडक श्रेष्ठी भगवान्की स्वीकृतिको जान, भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चला गया। ! मेंडक गृहपतिने उन गतके बीत जानेपर, उनम वाद्य-भोज्य तैयार करा, भगवान्को काल सूचित कराया । तब भगवान् पूर्वाह्मण समय. पहिनकर पात्रत्रीवर ले, जहाँ मेंडक गृहपतिका परोसना था, वहाँ गये। जाकर भिक्षु-संघ-सहित विछे आमनपर बैठे। तब मेंडक गृहपतिने साड़े बारह सौ गोपालोंको आजा "तो भणे ! एक एक गाय ले, एक एक भिक्षुके पास बळे हो जाओ, गर्मबारबाले यसे भोजन करायेंगे।” तब मेंडक गृहपतिने अपने हाथने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको उनम वाद्य-भोज्यसे संतर्षित किया, पूर्ण किया। गर्मधारके दूधने आनाकानी करते, भिक्षु (उमे) ग्रहण न करते थे। (तब भगवान्ने कहा)--"ग्रहण करो, पम्भिोग कगे, भिक्षुओ !" मेंडक गृहपति वुद्ध-सहित भिक्षु-संघको उत्तम वाद्य-भोज्य तथा धार-उष्ण बसे, अपने हाथ से संतर्पितकर पूर्णकर० एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे मंडक गृहपतिने भगवान्मे कहा- "भन्ते ! जल-रहित, खाद्य-रहित, कांतार (वीरान) मार्ग भी हैं; बिना पाथेयके (उनसे) जाना सुकर नहीं। अच्छा हो, भन्ते ! भगवान् पाथेयकी अनुज्ञा दें।" तव भगवान् मेंडक श्रेष्ठीको धर्म-उपदेश (कर)...आसनसे उठकर चल दिये। भगवान्ने इसी प्रकरणमें धार्मिक कथा कह, भिक्षुओंको आमंत्रित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, पाँच गोरस-दुध, दही, तक्र (=छाछ), नवनीत (=मक्खन) और घी (=सर्पिष्) की।” IIS (४) पाथेयका विधान "भिक्षुओ ! (कोई कोई) जल-रहित, खाद्य-रहित, कांतार-मार्ग हैं; (जिनसे) बिना पाथेयके जाना सुकर नहीं । अनुज्ञा देता हूँ, भिक्षुओ ! तंडुलार्थी (=तंडुल चाहनेवाला) तंडुलका, मूंग-चाहनेवाला मूंगका, उळद चाहनेवाला उड़दका, लोन चाहनेवाला लोनका, गुळ चाहनेवाला गुळका, तेल चाहनेवाला तेलका, घी चाहनेवाला घीका पाथेय ढूंढे ।" II6 (५) सोने चाँदीका निपेध "भिक्षुओ! (कोई कोई) श्रद्धालु और प्रसन्न मनुष्य होते हैं। वह क प्पि य कारक (=भिक्षुका गृहस्थ अनुचर) के हाथमें हिरण्य (=सोनेका सिक्का) देते हैं-'इससे आर्यको जो विहित है, वह ले देना।' "भिक्षुओ! उससे जो विहित हो, उसे उपभोग करनेकी अनुज्ञा देता हूँ। किन्तु, भिक्षुओ! जा त रू प (=सोना)-रजत (=चाँदी) का उपभोग करना या संग्रह करना, मैं किसी भी हालतमें नहीं कहता।" II7 १२. आपण क्रमशः चारिका करते हुए भगवान् जहाँ आ प ण था, वहाँ पहुँचे। (६) आठ पानों और सभी फल-रसोंको विकालमें भी अनुमति केणिय जटिलने सुना-शाक्यकुलसे प्रव्रजित, शाक्यपुत्र श्रमण गौतम आपणमें आये हैं। उन भगवान् गौतमका ऐसा मंगलकीर्ति शब्द फैला हुआ है-१० इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन उत्तम है। ! १ देखो पृष्ठ ९७ ।