२४४ ] ३-महावग्ग [ ६८ शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघकी भी।" "सिंह ! तुम्हारा घर दीर्घकालसे नि गं ठों के लिये प्याउकी तरह रहा है; उनके जानेपर 'पिंड न देना (चाहिये)' ऐसा मत समझना ।" "भंते ! इससे मैं और भी प्रसन्न-मन, संतुष्ट, और अभिरत हुआ । ० । मैंने सुना या भंते ! कि श्रमण गौतम ऐसा कहता है--'मुझे ही दान देना चाहिये, दूसरोंको दान न देना चाहिये०१ । भंते ! भगवान् तो मुझे निगंठोंको भी दान देनेको कहते हैं । हम भी भंते ! इसे युक्त समझेंगे । यह भंते ! मैं तीसरी बार भगवानकी गरण जाता हूँ । ० । तब भगवान्ने सिंह सेनापति को आ नु पू वीं क था कही, जैसे-दान-कथा, गोल-कया, स्वर्ग-कथा, कामभोगोंके दोप, अपकार और गलेग; और निष्कामताका माहात्म्य प्रकागित किया। जब भगवान्ने सिंह सेनापतिको अरोग-चित्त, मृदु-चित्त, अनाच्छादिन-चिन, उदग्र-चित्त, प्रसन्न-त्रित्त जाना । तब वह जो बुढोंको स्वयं उठानेवाली धर्म-देशना है, उसे प्रकामित किया-दुःख, मनुदय, निरोध और मार्ग । जैसे कालिमा-रहित शुद्ध वस्त्र अच्छी प्रकार रंग पकडता है । इसी प्रकार सिंह सेनापतिको उसी आसनपर वि-मल, वि-रज, धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ- 'जो कुछ समुदय-धर्म है, वह सब निरोध-धर्म है। सिंह सेनापति दृष्ट-धर्म-प्राप्त-धर्म-विदित-धर्म-परि-अवगाढ़-धर्म, संदह-रहित, वाद-विवाद- रहित, विशारदता-प्राप्त, शास्ताके शासनमें स्वतंत्र हो और भगवान्ने यह बोला- "भंते ! भिक्षु-संघके साथ भगवान् मेरा कलका भोजन स्वीकार करें।" भगवान्ने मौनसे स्वीकार किया । तब सिंह सेनापति भगवान्की स्वीकृतिको जान आसनसे उठ भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चला गया। तव सिंह सेनापतिने एक आदमीसे कहा- "हे आदमी ! जा तू तैयार मांसको देख तो।" तव सिंह सेनापतिने उस रातके बीतनेपर अपने घरमें उत्तम खाद्य-भोज्य तैयार करा, भगवान्को कालकी सूचना दी। भगवान् पूर्वाण समय (चीवर) पहनकर पात्र-चीवर ले जहाँ सिंह सेनापतिका घर था, वहाँ गये । जाकर भिक्षुसंघके साथ बिछे आसनपर वैठे । उस समय बहुतसे नि गं ठ (=जैनसाधु) वैशालीमें एक सळकसे दूसरी सळकपर, एक चौरस्तेसे दूसरे चौरस्तेपर, बाँह उठाकर चिल्लाते थे—'आज सिंह सेनापतिने मोटे पशुको मार कर, श्रमण गौतमके लिये भोजन पकाया ; श्रमण गौतम जान बूझकर (अपनेही) उद्देश्यले किये, उस (मांस) को खाता है ।...। तब कोई पुरुप जहाँ सिंह सेनापति था, वहाँ गया । जाकर सिंह सेनापतिके कानमें बोला- "भंते ! जानते हैं, वहुतसे निगंठ वैशालीमें एक सळकसे दूसरी सळकपर० वाँह उठाकर चिल्ला रहे हैं-आज० ।" "जाने दो आर्यो (=अय्या) ! चिरकालसे यह आयुष्मान् (=निगंठ) बुद्ध० धर्म० संघको निंदा चाहने वाले हैं। यह आयुष्मान् भगवान्की असत्, तुच्छ, मिथ्या अ-भूत निंदा करते नहीं शरमाते । हम तो (अपने) प्राणके लिये भी जान बूझकर प्राण न मारेंगे।" तव सिंह सेनापतिने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको अपने हाथ से उत्तम खाद्य-भोज्यसे संतर्पित (कर), परिपूर्ण किया । भगवान्के भोजनकर पात्रसे हाथ खींच लेनेपर, सिंह सेनापति...एक ओर १देखो उपालि-सुत्त (मज्झिमनिकाय पृष्ठ २२२)।
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