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1 ६६४८] सिंह सेनापतिकी दीक्षा [ २४३ "क्या तू सिंह ! त्रियावादी होकर, अक्रियावादी श्रमण गौतमके दर्शनको जायेगा ।" दूसरी बार भी सिंह सेनापतिकी० इच्छा० शांत होगई। तीसरी बार भी बहुतसे प्रतिष्ठित प्रतिष्ठित लिच्छवी० । 'पूर्वी या न पूछू, निगंठनाथपुत्त मेरा क्या करेगा ? क्यों न निगंठनाथपुत्तको बिना पूछे ही, मैं उन भगवान् अर्हत् सम्यक्-संबुद्धके दर्शनके लिये जाऊँ?' तब सिंह सेनापति पाँच सौ रथोंके साथ, दिन-ही-दिन (=दो पहर) को भगवान्के दर्शनके लिये, वैशालीसे निकला । जितना यान (रथ) का रास्ता था, उतना यानसे जाकर, यानसे उतर, पैदल ही आराममें प्रविष्ट हुआ । सिंह सेनापति जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया । जाकर भगवान्को अभिवादनकर, एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे हुये सिंह सेनापतिने भगवान्से यह कहा- "भंते ! मैंने सुना है कि-श्रमण गौतम अक्रिया-वादी है। अक्रियाके लिये धर्म-उपदेश करता है, उसीकी ओर शिष्योंको ले जाता है । भंते ! जो ऐसा कहता है-'श्रमण गौतम अक्रिया- वादी है० ।'...क्या वह भगवान्के बारे में...ठीक कहता है ? झूठसे भगवानकी निन्दा तो नहीं करता ? धर्मानुसार ही धर्मको कहता है ? कोई सह-धार्मिक वादानुवाद तो निंदित नहीं होता ? भंते ! हम भगवान्को निंदा करना नहीं चाहते।" "सि ह ! ऐसा कारण है, जिस कारणसे ठीक ठीक कहते हुये मुझे कहा जा सकता है- श्रमण गौतम अक्रिया-वादी है।" "सिंह ! क्या कारण है, '०श्रमण गौतम अक्रि या-वा दी है०' सिंह ! मैं कायदुश्चरित, वचन-दुश्चरित, मन-दुश्चरितको, तथा अनेक प्रकारके पाप बुराइयोंको अ-क्रिया कहता हूँ० 10 "सिंह ! क्या कारण है जिस कारणसे०-'श्रमण गौतम क्रिया-वादी है, क्रियाके लिये धर्म उपदेश करता है, उसीसे श्रावकोंको ले जाता है । सिंह ! मैं का य सु च रित (=अ-हिंसा, चोरी न करना, अ-व्यभिचार), वा क्-मु चरित (-सच बोलना, चुगली न करना, मीठा वचन, वकवाद न करना), म न सु च रि त ( अ-लोभ, अ-द्रोह, सम्यक्-दृष्टि) अनेक प्रकारके कुशल (= उत्तम) धर्मोको त्रिया कहता हूँ । सिंह ! यह कारण है, जिस कारणसे० मुझे 'श्रमण गौतम क्रियावादी' है०।० "०१ उच्छे द वा दी० । जुगुप्सु० । ०वै न यि क० । ०त प स्वी० । अप गर्भ० । "सिह ! क्या कारण है जिस कारणसे ठीक ठीक कहनेवाला मुझे कह सकता है-'श्रमण गौतम अस्स संत (=आश्वसंत) हे, आश्वासके लिये धर्म-उपदेश करता है, उसीके द्वारा श्रावकोंको ले जाता है। लिह ! मै परम आश्वाससे आश्वासित हूँ, आश्वासके लिये धर्म उपदेश करता हूँ, आश्वास (ने. मार्ग) से ही धावकोंको ले जाता हूँ । यह कारण ।" ऐसा कहनेपर सिंह नेनापतिने भगवान्से कहा- "आश्चर्य ! भंते आश्चर्य ! भंते ! ० उपासक मुझे स्वीकार करें।" "निह ! नोच समझकर करो० । तुम्हारे जैसे संभ्रांत मनुष्योंका सोच समझकर (निश्चय) वन्ना ही अच्छा है।" "ते ! भगवान्के इन कथनसे में और भी संतुष्ट हुआ। भंते ! दूसरे तैथिक मुझ जैसा नारी दैना ली में पताका उदाते-सिंह सेनापति हमारा शिप्य (=श्रा व क) हो गया। लेकिन भगवान् मुझे कहते हैं-सोच समझकर सिंह ! करो० । यह मैं भंते ! दूसरी वार भगवान्की शिप्प पाकर ' अभियावादी, उच्छेददादी, जुगुप्सु, तपस्दी, अप-गर्भको व्याख्या वेरञ्जसुत्त (अ० नि०) में।