[ ६९४८ २४२ ] ३-महावग्ग "अवलोकन करो भिक्षुओ ! लिच्छवियोंकी परिषद्को । अवलोकन करो भिक्षुओ ! लिच्छवियों की परिपद्को। भिक्षुओ ! लि च्छ वि परिषद्को वा य स्त्रिंग ( देव )-परिषद् समझो (उप- संहरथ )।" तब वह लिच्छवी० रथसे उतरकर पैदल ही जहाँ भगवान् थे, वहाँ. . .जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे लिच्छवियोंको भगवान्ने धार्मिक-कथासे० समुत्तेजित किया । तब वह लिच्छवी० भगवान्से बोले- "भन्ते ! भिक्षु-संघके साथ भगवान् कलका हमारा भोजन स्वीकार करें।" "लिच्छवियो ! कलके लिये तो मैंने अम्बपाली गणिकाका भोजन स्वीकार कर लिया है।" तव उन लिच्छवियोंने अंगुलियाँ फोळी- "अरे ! हमें अम्बिकाने जीत लिया । अरे ! हमें अम्बिकाने बंचित कर लिया।" तब वह लिच्छवी भगवान्के भापणको अभिनन्दितकर अनुमोदितकर, आसनसे उठकर भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चले गये । अम्बपाली गणिकाने उस रातके बीतनेपर उत्तम खाद्य-भोज्य तैयारकर, भगवान्को समय सूचित किया . . .। भगवान् पूर्वाह्ण समय पहिनकर पात्र-चीवर ले भिक्षु-संघके साथ जहाँ अम्बपाली का परोसनेका स्थान था, वहाँ गये । जाकर प्रज्ञप्त (= बिछे) आसनपर बैठे । तव अम्ब पालो गणिकाने बुद्ध-सहित भिक्षुसंघको अपने हाथसे उत्तम खाद्य-भोज्य द्वारा संतर्पित-संप्रवारित किया। तब अम्बपाली गणिका भगवान्के भोजनकर० लेनेपर, एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठी। एक ओर बैठी अम्बपाली गणिका भगवान्से बोली- "भन्ते ! मैं इस आरामको बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको देती हूँ।" भगवान्ने आरामको स्वीकार किया । तब भगवान् अम्बपाली०को धार्मिक कथासे समु- त्तेजित कर, आसनसे उठकर चले गये। ६-वैशाली तव भगवान् कोटिग्राममें इच्छानुसार विहारकर जहाँ वैशाली है; जहाँ म हा व न है वहाँ गये । वहाँ भगवान् वैशालीमें म हा व न की कूटागार शालामें विहार करते थे। लिच्छवी भाणवार (समाप्त) ॥ ३ ॥ (८) सिंह सेनापतिको दोक्षा उस समय बहुतसे प्रतिष्ठित लिच्छ वी, संस्था गा र (=प्रजातंत्र-सभागृह )में बैठे थे एकत्रित हो, बुद्धका गुण वखानते थे, धर्मका०, संघका गुण बखानते थे। उस समय निगं ठों ( जैनों)का श्रावक सिंह से ना पति उस सभामें बैठा था। तब सिंह सेनापतिके चित्तमें हुआ- 'निःसंशय वह भगवान् अर्हत् सम्यक्-संवृद्ध होंगे, तब तो यह बहुतसे प्रतिष्ठित लिच्छवि०वखान रहे हैं । क्यों न मैं उन भगवान् अर्हत् सम्यक्-संबुद्धके दर्शनके लिये चल ।' तव सिंह सेनापति जहाँ नि गं ठ ना थ पुत्त थे, वहाँ गया। जाकर निगंठनाथपुत्तसे बोला- "भंते ! मैं श्रमण गौतमको देखनेके लिये जाना चाहता हूँ।" "सिंह ! क्रि या वा दी होते हुये, तू क्या अ क्रिया (=अकर्म) वा दी श्रमण गौतमके दर्शनको जायेगा। सिंह ! श्रमण गौतम अक्रिया-वादी है, श्रावकोंको अक्रिया-वादका उपदेश करता है..." तव सिंह सेनापतिकी भगवान्के दर्शनके लिये जानेकी जो इच्छा थी, वह शांत होगई। दूसरी वार भी बहुतसे प्रतिष्ठित प्रतिष्ठित लिच्छवी० । तव सिंह सेनापति जहाँ निगंठ- नाथपुत्त थे, वहाँ गया० कहा० । 1
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२९५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।