२३० ] ३-महावग्ग [ ६३।१३ "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ वनकी और पुष्करिणीकी वस्तुको भोजन पूरा हो जानेपर भी अतिरिक्त न हो तो उसे भोजन करनेकी ।" 93 (१२) स्वयं लेकर फल खाना उस समय था व रती में बहुतसा खाने लायक फल उत्पन्न हुआ था लेकिन कोई कल्प्य का र क न था। भिक्षु संदेहमें पळकर फल न खाते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ बिना बीजबाले तथा (बीजवाले ) फलके बीजको निकालकर कल्प्य न करनेपर भी खानेकी।"94 -राजगृह (१३) गुप्त स्थानमें चीरफाळ वस्तिकर्मका निषेध १–तव भगवान् श्रा व स्ती में इच्छानुसार विहारकर ० रा ज गृह के वेणु व न क लं द क नि वा प में विहार करते थे। उस समय एक भिक्षुको भ गं द र का रोग था। आ का श गो व वैच शस्त्रकर्म (=चीर फाळ) करता था । तब भगवान् विहार में घूमते हुए जहाँ उस भिक्षुका विहार (=कोठरी) था वहाँ गये। आ का श गोत्र वैद्यने भगवान्को दूरसे ही आते देखा। देखकर भगवान्से यह बोला- “आइये आप गौतम! इस भिक्षुके मल-मार्गको देखें। जैसे कि गोहका मुख है।" तव भगवान्ने—'यह मोघपुरुप मुझसे ही मज़ाक कर रहा है'-(सोच) वहींसे लौटकर इसी सम्बन्धमें इसी प्रकरणमें भिक्षु-संघको एकत्रितकर भिक्षुओंसे पूछा- "भिक्षुओ ! क्या अमुक विहारमें रोगी भिक्षु है ?" "है भगवान् !" "भिक्षुओ ! उस भिक्षुको क्या रोग है ?" "भन्ते ! उस आयुष्मान्को भगंदरका रोग है और आ का श गोत्र वैद्य शस्त्र-कर्म कर रहा है।" बुद्ध भगवान्ने निंदा की- "भिक्षुओ ! अयुक्त है, उस मोघ पुरुषके लिये अनुचित है। अयोग्य है। अप्रतिरूप है। श्रमणोंके आचारके विरुद्ध है, अविहित है, अकरणीय है। कैसे भिक्षुओ ! वह मोघ पुरुप गुह्य-स्थानमें शस्त्र-कर्म कराता है ! भिक्षुओ! (उस) गुह्य-स्थानमें चमळा कोमल होता है। घाव मुश्किलसे भरता है । शस्त्र चलाना कठिन है। भिक्षुओ! न यह अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये है ।" निंदा करके धार्मिक कथा कह भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! गुह्य-स्थानमें शस्त्र-कर्म नहीं करना चाहिये । जो कराये उसे थुल्लच्चयका दोप ! ! हो।" 95 २-उस समय पड्वर्गीय भिक्षु-भगवान्ने शस्त्र-कर्मका निषेध किया है (यह सोच) वस्ति कर्म कराते थे। जो वह अल्पे च्छ भिक्षु थे हैरान... होते थे—'कैसे पड्वर्गीय भिक्षु वस्ति-कर्म कराते हैं !' तव उन लोगोंने यह वात भगवान्से कही।- "सचमुच भिक्षुओ ०?" “(हाँ) सचमुच भगवान् ।” निंदा कर धार्मिक कथा कह भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! गुह्य-स्थानके चारों ओर दो अंगुल तक शस्त्रकर्म या वस्तिकर्म नहीं कराना चाहिये । जो कराये उसे थु ल्ल च्च य का दोप हो।" 96 44
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