1 ५७३।१] सोण कुटिकण्णकी प्रव्रज्या [ २११ होती थी; भिक्षु संकोच करके उनपर नहीं बैठते थे । भगवान्से यह वात कही।- "अनुमति देता हूँ भिक्षुओ ! गृहस्थोंके विस्तरेपर बैठने की; किन्तु लेटनेकी नहीं।" 23 २–उस समय बिहार चमळेके टुकळोंसे विछे थे । भिक्षु संकोचके मारे नहीं बैठते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ सिर्फ़ वंधन भर पर वैठनेकी ।" 24 (८) जूता पहिने गाँवमें जानेका निषेध १-उस समय पड्वर्गीय भिक्षु जूता पहने गाँवमें प्रवेश करते थे । लोग हैरान. . होते थे (०) जैसे काम-भोगी गृहस्थ । भगवान्से यह बात कही ।- "भिक्षुओ ! जूता पहने गाँवमें प्रवेश नहीं करना चाहिये । जो प्रवेश करे उसे दुक्कटका दोष हो।" 25 २-उस समय एक भिक्षु बीमार था और वह जूता पहने बिना गाँवमें प्रवेश करने में असमर्थ था। भगवान्से यह बात कही। "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ बीमार भिक्षुको जूता पहनकर गाँवमें प्रवेश करनेकी ।" 26 5३-मध्यदेशसे बाहर विशेष नियम (१) सोण-कुटिकरण की प्रव्रज्या उस समय आयुष्मान् म हा का त्या य न अ व न्ती ' (देश) में कु र र घर के प्रपात पर्वत पर वास करते थे। उस समय सो ण कु टि क ण्ण उनका उपस्थाक था-एकान्तमें स्थित, विचारमें डूबे सोण-कुटिवण्ण उपासकवे मनमें ऐसा वितर्क उत्पन्न हुआ- "जैसे जैसे आर्य महाकात्यायन धर्म उपदेश करते हैं, (उससे) यह सर्वथा परिपूर्ण, सर्वथा परिशुद्ध शंखसा धुला ब्रह्मचर्य, गृहमें वसते पालन करना, सुकर नहीं है । क्यों न मैं० प्रबजित हो जाऊँ।" तब सोण-वृटिकण्ण उपासव, जहां आयुष्मान् महाकात्यायन थे, वहाँ गया.. .जाकर.. अभि- वादनकर एक ओर...बैठ. . .यह बोला- "भंते ! एकान्तमें स्थित हो विचारमें डूवे मेरे मनमें ऐसा वितर्क उत्पन्न हुआ-० । भंते ! आर्य महाकात्यायन मुझे प्रद्रजित करें।" ऐसा कहनेपर आयप्मान् महाकात्यायनने सोण ने यह कहा- "मोण ! जीवनभर एकाहार, एक. शय्यावाला ब्रह्मचर्य दुष्कर है । अच्छा है, मोण ! तू ग्राम्य गरते ही बढ़ोके वामन (उपदेश) का अनुगमन कर; और काल-युक्त (=पर्व-दिनोंमें) एक- आहार, एक-गल्या (वेला पहना) रख।" नव नोण-कृटिवण्ण उपासकका प्रज्याका उछाह ठंडा पळ गया। दुगनी टार भी मनमें ऐसा वितर्क उत्पन्न हुआ- । तीमरी बार भी० । “० भंते ! काय मालायाचनमा प्रजित करें।" तर आसमान म्हानालापनने भोप-बुटिकाः मानकको प्रजित किया (धामणेर 1 ) ! 'दि पिपपपमें बहुत छोटे भिक्षु थे । नद आयुष्मान् म हा का न्या - मान माला
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