५६११२ ] सोण कोटिविंश [ २०१ हो प्रवृजित हो जाऊँ? तब वह अस्सी हजार गाँवोंके मुखिया भगवान्के भाषणका अभिनंदनकर अनुमोदनकर आसनसे उठ भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चले गये । तव सोण को टि वी स उन अस्सी हजार गांवोंके मुखियोंके चले जानेके थोळीही देर बाद जहाँ भगवान् थे वहाँ गया। जाकर भगवान्को अभि- वादनकर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सो ण कोटिवीसने भगवान्से यह कहा- "मे भगवान्के उपदेश धर्मको जिस प्रकार समझ रहा हूँ (उससे जान पळता है कि) यह० ब्रह्मचर्य घरमें रहकर सुकर नहीं। भन्ते ! मैं शिर-दाढी मुंळा, कापाय वस्त्र पहिन, घर-से-बेघर हो प्रवजित होना चाहता हूँ। भन्ते ! भगवान् मुझे प्रव्रज्या दें।" सो ण कोटिवीसने भगवान्के पास प्रव्रज्या पाई, उपसम्पदा पाई। उपसम्पदा पानेके थोळे ही समय बादसे आयुष्मान् सो ण, सी त व न में विहार करते थे । उनके बहुत उद्योग-परायण हो टहलते वक्त पैर फट गये और टहलनेकी जगह खूनसे वैसे ही भर गई जैसे कि गाय मारनेकी जगह । तब एकान्त में विचारमग्न हो बैठे आयुप्मान् सोणके मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ-"भगवान्के जितने उद्योग- परायण हो विहरनेवाले शिप्य हैं मैं उनमेंसे एक हूँ, तो भी मेरा मन आस्रवों (=चित्तमलों) को छोळ कर मुक्त नहीं हो रहा है। मेरे घरमें भोग-सामग्री है। वहाँ रहते में भोगोंको भी भोग सकता हूँ और पुण्य भी कर सकता है। क्यों न मैं लौटकर गृहस्थ हो भोगोंका उपभोग करूँ और पुण्य भी करूं।" ३-तब भगवान्ने आयुष्मान् सोणके चित्तके विचारको अपने मनसे जानकर, जैसे बलवान् पुरुष (बिना प्रयास ) समेटी बांहको फैलाये और फैलाई बांहको समेटे वैसे, ही गृ ध कूट पर्वतपर अन्त- र्धान हो (भगवान् ) सी त ब न में प्रकट हुए । तव भगवान् वहुतसे भिक्षुओंके साथ आश्रममें टहलते, जहाँ आयुष्मान् यो ण वो टहलनेका स्थान था, वहाँ गये। भगवान्ने आयुष्मान् सो ण के टहलनेकी जगह ग्वूनसे भरी देखी। देखकर भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ! यह किसका टहलनेका स्थान खूनसे भरा है जैसे कि गाय मारनेका स्थान ?" "भन्ते ! बहुत उद्योग-परायण हो टहलते हुए आयुप्मान् सो ण के पैर फट गये। उन्हींकी टह- लनेवी जगह है जो खूनसे भरी है जैसे कि गाय मारनेका स्थान।" (२) अत्यन्त परिश्रम भी ठीक नहीं तब भगवान जहाँ आयुप्मान् नो ण का विहार (रह्नकी कोठरी) था वहाँ गये। जाकर विले आमनपर बंटे। आयुप्मान नो ण भी भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे आयमान खोण से भगवान्ने यह कहा- "क्या लोण! एकान्तमें विचारमग्न हो बैठे तेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ- पुण्य 1 "तो क्या मानता है. लोण! क्या तू पहले गृहस्थ होते समय वीणा बजानेमें चतुर था?" "तो कसा मानता है लोप! जब देरी दी णा के तार बहुत जोरने वित्र होते थे तो क्या उस गरी दीपावली होनी थी. बाम लापर होती थी?" "तो गमलता है. सोए जब तेरी पाय तार अत्यन्त ढीले होते थे, क्या उस समय तेजी सलाली होती. दानामा होती थी?"
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