२०४८ ] दोपोंका प्रतिकार [ १५५ ३-उस समय उस आवासमें उपोसथके दिन एक भिक्षु रहता था। उस भिक्षुको ऐसा हुआ--'भगवान्ने अनुमति दी है चारको प्रातिमोक्ष-पाठ करनेकी; तीनको शुद्धिवाला उपोसथ, दोको शुद्धिवाला उपोसथ करनेकी, किन्तु मैं अकेला हूँ, मुझे कैसे उपोसथ. करना चाहिये ?' भगवान्से यह वात कही।- "यदि भिक्षुओ ! किसी आवासमें उपोसथके दिन एक भिक्षु रहता है तो भिक्षुओ ! उस भिक्षुको जिस उपस्थान-शाला (चौपाल), मंडप, वृक्ष-छायामें भिक्षु आया करते हैं, उस स्थानको झाळू दे, पीने और इस्तेमाल करनेके पानीको रख, आसन विछा, दीपक जला बैठना चाहिये । यदि दूसरे भिक्षु आवें तो उनके साथ उपोसथ करना चाहिये । यदि न आयें तो, आज मेरा उपोसथ है, ऐसा दृढ संकल्प (=अधिष्ठान) करना चाहिये। यदि अघि ष्ठा न न करे तो दुक्कटका दोप हो। भिक्षुओ! जहाँ पर चार भिक्षु रहें, वहाँ एककी शुद्धि लाकर तीनको प्रा ति मो क्ष-पाठ नहीं करना चाहिये। यदि पाठ करें तो दुक्कटका दोष हो। भिक्षुओ ! जहाँपर तीन भिक्षु हैं, वहाँ एककी शुद्धि लाकर (वाकी) दोको शुद्धिवाला उपोसथ नहीं करना चाहिये। यदि करें तो दुक्कटका दोष हो। भिक्षुओ! जहाँपर दो भिक्षु हैं वहाँ एककी शुद्धि लाकर (वचे एकको) अ धि ष्ठा न न करना चाहिये। यदि अधिष्ठान करे तो दुक्कटका दोष हो।" 77 (७) उपोसथके दिन दोषोंका प्रतिकार उस समय उपोसथके दिन एक भिक्षुसे दोष (अपराध) हो गया । तब उस भिक्षुको यह हुआ—'भगवान्ने विधान किया है कि सदोष (भिक्षु)को उपोसथ नहीं करना चाहिये, और मैं सदोष हूँ। मुझे कैसे करना चाहिये ?' भगवान्से यह बात कही।- १- "भिक्षुओ ! यदि उपोसथके दिन किसी भिक्षुको दोष याद आया हो; तो भिक्षुओ ! उस भिक्षु को एक भिक्षुके पास जाकर उत्तरानंग एक कंधेपर कर उकळं वैठ, हाथ जोळ ऐसा बोलना चाहिये-- 'आवुस ! मुझने ऐसा दोप हुआ है। उसकी मैं प्रति दे श ना (=अपराध-स्वीकार, Confession) करता हूँ' (और) उस (दूसरे भिक्षु)को कहना चाहिये—'क्या तुम देखते हो (अपने दोषको)?" 'हाँ देखता हूँ।' 'आगेके लिये वचाव करना।' 78 २-"यदि भिक्षुओ ! एक भिक्षुको उपोसथके दिन दोप (किया या नहीं किया इसमें) संदेह हो तो उस भिक्षुको एक भिक्षुके पास जाकर उत्तरासंग एक कंधेपर कर उकळं वैठ, हाथ जोळ ऐसा कहना चाहिये- 'आवुस ! मैं इस नामवाले दोपके विषयमें संदेहमें पळा हूँ। जब संदेह-रहित होऊँगा तो उस दोपका प्रतिकार काँगा'--इस प्रकार कह वह उपोसथ करे., प्रातिमोक्ष सुने। उसके लिए उपोसथ में कावट नहीं करनी चाहिये।" 79 (८) दोपका प्रतिकार कैसे और किसके सामने १- (क). उस समय पड्वर्गीय भिक्षु अधूरे दोपकी दे श ना (=अपराध-स्वीकार) करते थे। भगवान्ने यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अधूरे दोपकी दे ग ना नहीं करनी चाहिये । जो (अधूरी) देशना करे उसे दुक्क ट का दोप हो।" 80 (न्य). उन नमय प ड वर्गी य भिक्षु अधूरे दोष (की दे ग ना करनेपर उस) को ग्रहण करते थे। भगवान्ने यह बात कही।
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२०६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।