११८ ] ३-महावग्ग [ १९३६ हो भिक्षुओंमें आकर प्रवृजित हुआ था। ०। (भगवान्ने कहा)- "भिक्षुओ! (राज.) दंडसे लक्षणाहतको नहीं प्रव्रज्या देनी चाहिये।" 70 ८-उस समय एक ऋणी पुरुप भागकर भिक्षुओंके पास प्रव्रजित हुआ था। धनियों (=ऋण देनेवालों)ने देखकर यह कहा--'यह हमारा ऋणी है। अहो ! इसको ले चलें।' दूसरोंने ऐसा कहा- 'मत आर्यो ! ऐसा कहो । मगधराज सेनिय विम्बिसारने आज्ञा दे रखी है० ।' (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ! ऋणीको नहीं प्रव्रज्या देनी चाहिये।" 71 ९--उस समय एक दास (=गुलाम) भागकर भिक्षुओंमें प्रबजित हुआ था। मालिकोंने देखकर ऐसा कहा--'यह वह हमारा दास है। अहो ! इसे ले चलें। (भगवान्ने यह कहा)- 'भिक्षुओ! दासको नहीं प्रव्रज्या देनी चाहिये०।" 72 (५) मुंडनके लिये संघको सम्मति उस समय एक स्वर्णकार (= कम्मार) का पुत्र माता-पिताके साथ झगळाकर आरामम जा भिक्षुओंके साथ प्रव्रजित हो गया। तब उस स्वर्णकार-पुत्रके माता-पिताने उसे खोजते हुए आराममें जा भिक्षुओंसे पूछा-'क्या भन्ते ! इस प्रकारके लळकेको देखा है ?' न जाननेके कारण भिक्षुओंने कहा- --'हम नहीं जानते।' न देखनेके कारण कहा-'हमने नहीं देखा।' तब उस स्वर्णकार-पुत्रके माता-पिता खोज करके उसे भिक्षुओंमें प्रव्रजित हुआ देख हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे- 'यह शाक्यपुत्रीय श्रमण निर्लज्ज, दुःशील, झूठ बोलनेवाले हैं जिन्होंने जानते हुए कहा, हम नहीं जानते; देखते हुए कहा, हमने नहीं देखा। यह लळका तो यहाँ भिक्षुओंके पास प्रवजित हुआ है।' भिक्षुओंने उस स्वर्णकार-पुत्रके माता-पिताके हैरान होने, धिक्कारने और दुखी होनेको सुना। तब उन्होंने यह बात भगवान्से कही। (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ ! मुंडन-कर्म करनेके लिये संघकी अनुमति लेनेकी आज्ञा देता हूँ।"73 .( ६ ) बीस वर्षसे कमकी उपसम्पदा नहीं उस समय रा ज ग ह में सप्त द श व र्गी य (=जिस समुदायमें सत्रह आदमी हों) लड़के एक दूसरेके मित्र थे। उ पा लि लळका उनका मुखिया था। तब उपालिके माता-पिताके (मनमें) ऐसा हुआ--' किस उपायसे हमारे मरने के बाद उ पा लि सुखसे रह सकेगा, दुख नहीं पायेगा ?' तब उ पा लि के माता-पिताके (मनमें) ऐसा हुआ--'यदि उ पा लि लेखा सीखे तो वह हमारे मरनेके बाद सुखसे रह सकेगा, दुख नहीं पायेगा।' तब उपालि के माता-पिताके (मनमें) ऐसा हुआ-'यदि उपालि लेखा सीखेगा तो उसकी अँगुलियाँ दुखेंगी । हाँ यदि उपालि ग ण ना (=हिसाब) तीखे तो हमारे मरनेके बाद० ।' तव उ पा लि के माता-पिताके (मनमें) ऐसा हुआ--'यदि उपालि ग ण ना सीखेगा तो उसकी जाँघ दुखेगी। हाँ यदि उपालि रूप (=सराफी) सीखे तो हमारे मरनेके बाद० ।' तब उपालि के माता-पिताके (मनमें) ऐसा हुआ--'यदि उपालि रू प को सीखेगा तो उसकी आँग्में दुखेंगी। हाँ यह शाक्यपुत्रीय श्रमण सुखशील और सुख-समाचार हैं। ये अच्छा भोजन करवं (अच्छे) निवासों और शय्याओंमें सोते हैं। क्यों न उपालि भी शाक्यपुत्रीय श्रमणोंमें जाकर भिक्षु बन जाय । इस प्रकार उपालि हमारे मरनेके बाद० ।' उपालि लळकेने (अपने) माता-पिताके इस कथा-संलापको सुना। तब उपालि लळका जहाँ उसके (साथी) लळके थे वहाँ गया। जाकर उन लळकोंसे बोला-'आओ आर्यो ! हम सब गायय- पुत्रीय श्रमणोंके पास जाकर प्रवजित हों।' तव उन लळकोंने अपने अपने माँ-बापके पास जाकर यह कहा -'हमें घरसे-बेघर हो प्रव्रज्या लेनेकी आज्ञा दें।' तव उन लळकोंके माता-पिताने एक मी रुनि रखनेवाले लळकोंके अभिप्रायको सुंदर जान अनुमति दे दी । उन्होंने भिक्षुओंके पास आकर प्रव्रज्या
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