१०८ ] ३-महावग्ग [2013 (७) उपसम्पादकके वर्ष आदिका नियम उप से न की क था--उस समय एक ब्राह्मण-कुमार (=माणवक)ने भिक्षुओंके पास आकर प्रव्रज्या पानेकी प्रार्थना की। भिक्षुओंने उसे तुरंत ही (चारों) नि ध य बतलाये। उसने यह कहा- "भन्ते ! यदि प्रबजित होनेके वाद (इन) निश्रयोंका बतलाये होते तो मैं (इन्हें) पसंद करता; अब मैं नहीं प्रबजित होऊँगा। यह निश्रय मुझे नापसन्द है, प्रतिकल है।" भिक्षुओंने यह वात भगवान्से कही। (भगवान्ने कहा)-- "भिक्षुओ ! तुरंत ही निश्रय नहीं बतला देना चाहिये। जो बतलाये उसे दुक्क ट का दोष हो। भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ उपसंपदा हो जानेके बाद निश्रयोंको बतलाने की। 21 उस समय भिक्षु दो पुरुष(कोरम् ), तीन पुरुप वाले (भिक्षु-) गण से भी उपसंपदा देते थे। भगवान्से यह बात कही। (भगवान्नं कहा)--"भिक्षुओ! दसमे कम वर्ग (-कोरम्) वाले गणसे उपसंपदा न करानी चाहिये। जो कराये उसको दुक्क ट का दोप हो। अनुमति देता हूँ, दस या दससे अधिक पुरुषवाले गण द्वारा उपसंपदा कराने की ।"22 उस समय एक वर्ष दो वर्षके (भिक्षु वने) भिक्षु भी गिप्योंकी उपसंपदा करते थे। आयुष्मान् उप से न वं गन्त पुत्त ने भी (भिक्षु बननेके) एक वाद ही शिप्यको उपसंपादित किया । (दूसरे) वर्षावासको समाप्त करलेनेपर वह दो वर्षके (भिक्षु) हो एक वर्पके (भिक्षु बने अपने) शिष्यको लेकर जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठे । आगन्तुक भिक्षुओंके साथ कुशल-प्रश्न करना बुद्ध भगवानोंका स्वभाव है। तव भगवान्ने आयुष्मान् उ प से न वं गन्त पुत्त से यह कहा- "भिक्षु ! ठीक तो रहा, अच्छा तो रहा, रास्ते में तकलीफ तो नहीं पाये ?" "ठीक रहा भगवान् ! अच्छा रहा भगवान् ! क्लेशके बिना हम रास्ते आये।" जानते हुए भी तथागत (किसी वातको) पूछते हैं। जानते हुए भी नहीं पूछते । (पूछनेका) काल जानकर पूछते हैं, (न पूछनेका) काल जानकर नहीं पूछते । तथागत सार्थक (वात) को पूछते हैं; निरर्थकको नहीं पूछते । निरर्थक होनेपर तथागतोंकी मर्यादा-भंग (=सेतु-घात) होती है। बुद्ध भग- वान् दो प्रकारसे भिक्षुओंको पूछते हैं--(१) शिष्योंको धर्मोपदेश करनेके लिये और (२) (शिप्योंके लिये) भिक्षु-नियम (=शिक्षा-पद) बनानेके लिये। तव भगवान्ने आयुष्मान् उ प से न वं गन्त पु त्र से यह कहा- "भिक्षु ! तू कितने वर्पका (भिक्षु) है ?" "मैं दो वर्पका हूँ, भगवान् !' "और यह भिक्षु कितने वर्पका (भिक्षु) है ?" "एक वर्पका है, भगवान् ! "यह भिक्षु कौन है ?" "यह मेरा शिप्य है, भगवान् !" बुद्ध भगवान्ने--"नालायक ! यह अनुचित है, अयोग्य है, साधुओंके आचारके विरुद्ध है, अभव्य है, अकरणीय है। कैसे तू नालायक ! (स्वयं) दूसरों द्वारा उपदेश और अनुशासन किये जाने योग्य होते दूसरेका उपदेश और अनुशासन करने वाला वनेगा? नालायक ! तू वळी जल्दी जमातकी गठरी वाला और वटोरू बन गया। नालायक ! न यह अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये है ।" निदा करके धार्मिक कथा कहकर भिक्षुओंको संबोधित किया-- "भिक्षुओ! दस वर्षसे कमवाले (भिक्षु)को उपसंपदा न करानी चाहिये। जो उपसंपदा कराये "
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