१०२ ] ३-महावग्ग [ १२१ गद्दा-चद्दर निकालकर एक ओर रखना चाहिये । तकिया...रखनी चाहिये । चारपाई खळीकर... केवाळमें बिना टकराये लेकर, एक ओर रख देना चाहिये । पीढ़ेको खळाकर.. .केवाळमें विना टकराये। चारपाईके (पावेके) ओट० । पौदानको एक ओर० । सिरहानेका पटरा एक ओर० । फर्शको विछावट के अनुसार हिफाजतसे ले जाकर० । यदि विहार में जाला हो, तो उल्लोक पहिले वहारना चाहिये । अँधेरे कोने साफ करने चाहिये । यदि भीत (=दीवार) गेरूसे गच की हुई हो, तो लत्ता भिगोकर रगळकर साफ करनी चाहिये। यदि काली हो गई, मलिन भूमि हो, (तो भी) लत्ता भिगोकर रगळकर साफ करनी चाहिये ।...। जिसमें धूलसे खराव न हो जाय । कूळेको ले जाकर एक तरफ फेंकना चाहिये । फर्शको धूपमें सुखा, साफकर फटकारकर, ले आकर पहिलेकी भाँति बिछा देना चाहिये । चारपाईके ओटको धूपमें सुखा साफकर ले आकर, उनके रथानपर रख देना चाहिये। चारपाईको धूपमें सुखा, साफ- कर, फटकारकर नवाकर केवाळको विना टकराये...ले आकर० । पीढ़ा। तकिया० । गहा बहर धूपमें सुखा साफकर फटकारकर ले आकर विछा चाहिये। पीकदान सुखा साफकर लेकर यथा- स्थान रख देना चाहिये ।...। यदि धूलि लिये पुरवा हवा चल रही हो, पूर्वकी खिळकियाँ वन्द कर देनी चाहिये ।...। यदि जाळेके दिन हों, दिनको जंगला खुला रखकर, रातको वन्द कर देना चाहिये । यदि गर्मीका दिन हो तो दिनको जंगला बन्दकर रातको खोल देना चाहिये । यदि आंगन (=परिवेण) मैला हो, आंगन झाळना चाहिये । यदि कोठरी मैली हो । यदि बैठक मैली हो । यदि अग्निशाला (= पानी गर्म करनेका घर) मैली० । यदि पाखाना मैला हो । यदि पानी न हो, पानी भरकर रखना चाहिये। यदि पीनेका जल न हो । यदि पाखानेकी मटकीमें जल न हो। यदि उपाध्यायको उदासी हो, तो शिष्यको (उसे) हटाना हटवाना चाहिये, या धार्मिक कथा उनसे करनी चाहिये। यदि उपाध्यायको शंका (= कौकृत्त्य) उत्पन्न हुई हो, तो शिप्यको हटाना हटवाना चाहिये, या धार्मिक कथा उनसे करनी चाहिये। यदि उपाध्यायको (उल्टी) धारणा उत्पन्न हुई हो, तो शिप्यको छुळाना छुळवाना चाहिये, या धार्मिक कथा उनसे करनी चाहिये। यदि उपाध्यायने परि वा स' देने योग्य वळा अपराध किया हो, तो शिप्यको कोशिश करनी चाहिये, जिसमें कि संघ उपाध्यायको परिवास दे। यदि उपाध्याय (दोपके कारण) मू ला य-प्रति क र्पण' के योग्य हों, तो शिष्यको कोशिश करनी चाहिये, जिसमें कि संघ उपाध्यायका मूलाय-प्रतिकर्षण करे। यदि उपाध्याय मा न त्व 'के योग्य हों, ०। यदि उपाध्याय अबा न के योग्य हों, ०। यदि (भिक्षु-) संघ, उपाध्यायको तर्ज नी य' (=तज्जनीय), नि य स्स', प्र वा ज नी य, पति सा र णीय, या उ त्क्षे प णी य' कर्म (=दंड) करना चाहे तो शिप्यको उत्सुकता करनी चाहिये, जिसमें कि संघ उपाध्यायको दंड न करे या हल्का दंड करे । यदि संघने त ज्ज नी नि य स्स, प व्वा जनी य, पति सा र णी य या उत्क्षेपणीय दंड कर दिया हो तो शिष्यको उत्सुकता करनी चाहिये कि उपाध्याय ठीकसे रहें, लोम गिरा दें, निस्तारके अनुकूल वर्ताव करें; जिसमें कि संघ उस दंडको मंसूख कर दे। यदि उपाध्यायका चीवर धोने लायक हो तो शिष्यको धोना चाहिये, या उत्सुकता करनी चाहिये जिसमें कि उपाध्यायका चीवर धोया जावे। यदि उपाध्यायको चीवर बनाने की जरूरत हो, यदि उपाध्यायको रंग पकानेकी जरूरत हो, यदि उपाध्यायका चीवर रेंगने लायक हो, । चीवरको रँगते वक्त अच्छी तरह उलट पलटकर रँगना चाहिये। कहीं खाली न छोळना चाहिये । उपाध्यायको विना पूछे न किसीको पात्र देना चाहिये न किसीसे पात्र ग्रहण करना चाहिये; न किसीको चीवर देना य, १ देखो चुल्लवग्गके २ (पारिवासिक) स्कंधक और ३ (समुच्चय) स्कंधक ।
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