१९२११ ] सारिपुत्र और मौद्गल्यायनकी प्रव्रज्या [ १०१ नालायक विना ठीकसे पहिने० भिक्षाके लिये घूमते हैं। भिक्षुओ! (उनका) यह (आचरण) अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये नहीं है, और न प्रसन्नों (=श्रद्धालुओं) को अधिक प्रसन्न करनेके लिये; वल्कि अप्रसन्नोंको (और भी) अप्रसन्न करनेके लिये, तथा प्रसन्नों से भी किसी किसीके उलट देनेके लिये है।" तव भगवान्ने उन भिक्षुओंको अनेक प्रकारसे धिक्कारकर...भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ उपाध्याय (करने) की । उपाध्यायको शिष्य (=सद्धिविहारी) में पुत्र-बुद्धि रखनी चाहिये, और शिष्यको उपाध्यायमें पिता-बुद्धि...। इस प्रकार उपाध्याय ग्रहण करना चाहिये---उपरना (उत्तरा-संग) को एक कंधेपर करवा, पाद-वंदन करवा, उकळू बैठवा, हाथ जोळवा ऐसा कहलवाना चाहिये---'भन्ते ! मेरे उपाध्याय वनिये, भन्ते ! मेरे उपाध्याय बनिये, भन्ते ! मेरे उपाध्याय बनिये।'... "भिक्षुओ! शिष्यको उपाध्यायके साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिये। अच्छा बर्ताव यह है- समयसे उठकर, जूता छोळ, उत्तरासंगको एक कंधेपर रख, दातुवन देनी चाहिये, मुख (धोनेको) जल देना चाहिये। आसन विछाना चाहिये । यदि खिचळी (कलेऊके लिये) है, तो पात्र धोकर (उसे) देना चाहिये।...। पानी देकर पात्र लेकर...बिना घसे धोकर रख देना चाहिये। उपाध्यायके उठ जानेपर, आसन उठाकर रख देना चाहिये । यदि वह स्थान मैला हो, तो झाळू देना चाहिये । यदि उपाध्याय गांवमें जाना चाहते हैं, तो वस्त्र थमाना चाहिये,... , कमर-वन्द देना चाहिये, चौपेतकर संघाटी' देनी चाहिये, धोकर पानी भर पात्रदेना चाहिये। यदि उपाध्याय अनुगामी-भिक्षु चाहते हैं, तो तीन स्थानोंको ढाँकते हुए घेरादार (चीवर) पहन, कमर-बन्द बाँध चौपेती संघाटी पहिन, मुद्धी बाँध, धोकर पात्रले उपाध्यायका अनुचर (=पीछे चलनेवाला) भिक्षु बनना चाहिये । (साथमें) न बहुत दूर होकर चलना चाहिये, न बहुत समीप होकर चलना चाहिये। पात्रमें मिली (भिक्षा)को ग्रहण करना चाहिये । उपाध्यायके वात करते समय, वीच वीचमें वात न करना चाहिये। उपाध्याय (यदि) सदोष (वात) बोल रहे हों, तो मना करना चाहिये। लौटते समय पहिलेही आकर आसन बिछा देना चाहिये, पादोदक (=पैर धोनेका जल), पाद-पीठ, पा द क ठ ली (=पैर घिसनेका साधन) रख देना चाहिये। आगे बढकर पात्र-चीवर (हाथसे) लेना चाहिये । दूसरा वस्त्र देना चाहिये । पहिला वस्त्र ले लेना चाहिये। यदि चीवरमें पसीना लगा हो, थोळी देर धूपमें सुखा देना चाहिये। धूपमें चीवरको डाहना न चाहिये। (फिर) चीवर वटोर लेना चाहिये।...यदि भिक्षान्न है, और उपाध्याय भोजन करना चाहते हैं, तो पानी देकर भिक्षा देनी चाहिये । उपाध्यायको पानीके लिये पूछना चाहिये। भोजन कर लेनेपर पानी देकर, पात्र ले, झुकाकर विना घिसे अच्छी तरह धो-पोंछकर मुहूर्तभर धूपमें सुखा देना चाहिये। धूपमें पात्र डाहना न चाहिये।. . .यदि उपाध्याय स्नान करना चाहें, स्नान कराना चाहिये। यदि जं ता घ र (= स्नानागार) में जाना चाहें, (स्नान-) चूर्ण ले जाना चाहिये, मिट्टी भिगोनी चाहिये । जंताघरके पीढ़ेको लेकर उपाध्यायके पीछे पीछे जाकर, जन्ताघरके पीढ़ेको दे, चीवर ले एक ओर रख देना चाहिये। (स्नान-)चूर्ण देना चाहिये । मिट्टी देनी चाहिये।. . .उपाध्यायका (शरीर) मलना चाहिये । (उपाध्यायके) नहा लेनेसे पूर्वही अपने देहको पोंछ (सुखा), कपळा पहन, उपाध्यायके गरीरने पानी पोंछना चाहिये । वस्त्र देना चाहिये । संघाटी देनी चाहिये। जंताघरका पीढ़ा ले पहिलेही आकर, आसन विछाना चाहिये ।... जिस विहार में उपाध्याय विहार करते हैं, यदि वह विहार मैला हो, तो समर्थ होनेपर उसे साफ करना चाहिये। विहार साफ करनेमें पहिले पात्र चीवर निकालकर, एक ओर रखना चाहिये। . "दोहरा चीदर।
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