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.धर्म० [....…....…: १०१।१७ ] गयासीसपर [ ९५ जल रहा है....यह मैं कहता हूँ। जिह्वा० । रस० । जिह्वा-विज्ञान० । जिह्वा-संस्पर्श ० १ ०जिह्वा- संस्पर्शके कारण (उत्पन्न) वेदनायें fo....०जल रही हैं।....यह मैं कहता हूँ। काया०-०स्पर्श०....काय- विज्ञान०....०काय-संस्पर्श....काय-संस्पर्शसे (उत्पन्न) वेदनायें०....०जल रही हैं। ०....मन०.... .०मनो-विज्ञान०. .०मन-संस्पर्श....मन-संस्पर्शसे (उत्पन्न) वेदनायें जल रही हैं। किससे जल रही हैं। राग-अग्निसे हेप-अग्निसे मोह-अग्निसे जल रही हैं। जन्म, जरा और मरणके योगसे जल रही हैं। रोने-पीटनेसे दुःखसे दुर्मनस्कतासे जल रही हैं"--यह मैं कहता हूँ । "भिक्षुओ! ऐसा देख, (धर्मको) सुननेवाले आर्य' शिष्य चक्षुसे निर्वेद -प्राप्त होता है, रूपसे निवेद-प्राप्त होता है, चक्षु-विज्ञानसे निर्वेद-प्राप्त होता है, चक्षु-संरपर्शसे ३ निर्वेद-प्राप्त होता है; चक्षु-संस्पर्शके कारण जो यह उत्पन्न होती है वेदना--सुख, दुःख, न सुख-न दुःख--उससे भी निर्वेद- प्राप्त होता है। "श्रोत्र । शब्दः । श्रोत्र-विज्ञान । श्रोत्र-संस्पर्श । श्रोत्र-संस्पर्शके कारण (उत्पन्न) वेदना० । घाण । गंध । घ्राण-विज्ञान । घ्राण-संस्पर्ग० घ्राण-संस्पर्शके कारण (उत्पन्न) वेदना० । जिह्वा । रस० । जिह्वा-विज्ञान । जिह्वा-संस्पर्श० । जिवा-संस्पर्शके कारण (उत्पन्न) वेदना० । काय० । स्पर्क ३ ० । काय-विनान० । काय-संस्पर्श । काय-संस्पर्शके कारण (उत्पन्न) वेदना० । "मनसे निर्वेद-प्राप्त होता है। धर्मसे निवेद-प्राप्त होता है। मनो-विज्ञानसे निर्वेद-प्राप्त होता है। मन-संस्पर्मले निर्वेद-प्राप्त होता है। मन-संस्पर्शके कारण जो यह वेदना--सुख, दुःख, न सुख-न दुःख–उत्पन्न होती है उससे भी निर्वेद-प्राप्त होता है। उदास हो विरक्त होता है । विरक्त होनेसे मुक्त होता है । मुक्त होनेपर मैं मुक्त हूँ" यह ज्ञान होता है। वह जानता है-"आवागमन खतम हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, करना था सो करचुका, और यहाँ कुछ (करनेको वाकी) नहीं है।" इस व्याख्यानके कहे जाते वक्त उन हज़ार भिक्षुओंके चित्त निलिप्त हो आवागमन देनेवाले चित्त-मलोंसे छूट गये।...... उरुवेल प्रातिहार्य (नामक) तृतीय भाणवार समाप्त ॥३॥ ५-राजगृह (१७ ) राजगृहमें विविसारकी दोक्षा भगवान् ग या सी स में इच्छानुसार विहारकर, (राजा वि वि सा र से की हुई प्रतिज्ञा का म्मरणकर) सभी एक हजार पुराने जटिल भिक्षुओंके महान् भिक्षु-संघके साथ, चारिकाके लिये चल दिये। भगवान् त्रमश: चारिका करते, रा ज गृह पहुँचे। वहाँ भगवान् राजगृहमें लट्ठि (यट्ठि) वनके सुप्रति प्ठि त चौरे (=चैत्य) में ठहरे । मगध-राज श्रेणिक वि वि सा र ने (अपने मालीके मुंहसे) सुना, कि शाक्यकुलसे साधु बने शाक्यपुत्र श्रमण गौ त म राजगृहमें पहुँच गये हैं। राजगृहमें लट्ठि (=यट्ठि) व न के सुप्रतिष्ठित चैत्यमें विहार कर रहे हैं। उन भगवान् गौतमका ऐसा मंगल-यश फैला हुआ है—“वह भगवान् अर्हत् हैं, सम्यवः-संवृद्ध हैं, विद्या और आचरणमे युक्त हैं, सुगत हैं, लोकोंके जानने वाले हैं, उनसे उत्तम कोई नहीं है ऐने (वह) पुरुषोंके चावुक-सवार हैं, देवताओं और मनुष्योंके उपदेशक हैं- (ऐसे वह) बुद्ध भगवान् हैं।" वह ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक, सहित इस लोकको, देव-मनुष्य-सहित १लोतआपन्न, सकृदागामी, अना-गामी, अर्हत् । २ वैराग्यकी पूर्वावस्था। शीत, उष्णआदि। ४ राजगिरके पासका जठियाँव ।