[ ६ ] मृल सर्वास्तिवादकी अपेक्षा संक्षिप्त होना भी पाली-विनय-पिटकके अधिक प्राचीन होनेमें प्रमाण है। विनय-पिटककी टीका अशोकके समय सर्वास्तिवादका केन्द्र मगधमें नालंदा थी, पीछे मथुगके पास उन्मुंड पर्वत (गोबर्धन) उसका केन्द्र बना । संभवतः इसी समय इसका पिटक संस्कृतमें हुआ। मथुराबाले सर्वाग्निबाद या आ र्य सर्वा स्ति वा द की पुस्तक अशोकावदान इस वक्त उपलब्ध है। मथुरामें जब गकोंकी प्रधानता हो गई, और आर्यसर्वास्तिवाद उनका विशेष श्रद्धा-भाजन हो गया, उसी समय उनका केन्द्र कश्मीर- गंधार चला गया; जहाँपर कि शक-साम्राज्यका केन्द्र था । इस तीसरे सर्वाग्निवादका नाम म ल - सर्वा स्ति वा द है । सम्राट कनिप्कके समय (ईसाकी प्रथम शताब्दीमें ) कुछ मतभेदोंके मिटानेके लिये विद्वानोंकी एक सभा की गई, जिसमें त्रिपिटकके लेखबद्ध करनेके अतिरिक्त तीनों पिटकोंपर विभा पा नामकी टीकायें लिखी गई। इन्हींके कारण पीछे सर्वास्तिवादयोंका नाम वै भा पि क पळा। (विनय-विभापा का अनुवाद सिर्फ चीन-भाषामें मिलता है)। यह टीका उन परम्पराओंपर अवलम्बित है, जो कि तब तक गुरु-शिष्य क्रमसे चली आती थी। स्थविर-वादियोंका विनय पिटक, जो कि पाली-भापामें है; सम्राट अशोकके पुत्र और पुत्री महेन्द्र और संघमित्राके साथ भारतसे सिंहल (लंका) पहुँचा । तबसे अब तक लंका स्थविरवादका केन्द्र है । इसमें आई कथाओंकी प्रामाणिकता साँची, कनेरी आदिके स्तूपोंसे निकली अशोक कालीन आचार्यों की अस्थियोंसे हो चुकी है। इसके विनय पिटककी टीकायें अट्ठकथायें पहिले कई थीं। कु रु न्दि-अट्ठकथा. म हा प च्च रि -अट्ठकथा, सं खेप-अट्ठकथा, अन्ध क-अट्ठकथा, म हा -अट्ठकथा आदि कितनी ही अट्ठकथायें बनी थीं, जिनमें कुछ सिंहलकी तत्कालीन प्राकृत भापामें थीं। पाँचवीं शताब्दीके आरम्भ में भारतीय आचार्य वुद्धघोपने इन्हीं अट्ठकथाओंकी सहायतासे पाली भापामें अपनी अट्ठकथायें लिखीं; जिनकी उपयोगिता अधिक होनेके कारण पहिलेकी अट्ठकथायें पीछे लुप्त हो गई । बुद्धघोप-विरचित विनय-अट्ठकथाका नाम स म न्त पा सा दि का है। मूल विनयकी भाँति यह अट्ठकथा भी बहुतसी ऐतिहासिक सूचनायें देती है । अशोकके समयकी वौद्ध सभा और सिंहलमें धर्म-प्रचारके बारेमें तो इसमें सविस्तर वर्णन मिलता है (इसे मैं अपनी बुद्ध च र्या के अन्तमें अनुवादति कर चुका हूँ) । इसमें आये सिंहलके आचार्यों और तत्कालीन राजाओंके नामसे मालूम होता है, कि पुरानी अट्ठकथाओंक निर्माणका समय ईसाकी तीसरी शताब्दीसे पूर्व ही पूरा हो चुका था। पाठ-परिवर्तन बुद्ध-निर्वाणमे (४८३ ई० पूर्व) से लेकर राजा वट्ट गा म नी (२९-? ई० पूर्व) के काल तक न्थविरवादियोंका त्रिपिटक बरावर कंठस्थ ही चला आया था। वट्टगामनीके समय लंकामें बिपिटक लेख-बद्ध किया गया। इन चार सौमे अधिक वर्षों तक कंठस्थ ले आनेका प्रभाव एक तो यह पळा, कि मूल त्रिपिटककी भापा, जो पहिले मागधी थी--का उच्चारण विगळकर महाराष्ट्रीसा हो गया। वस्तुतः यह म्वाभाविक ही था। सिंहलके प्रथम प्रवासी गुजरात (=लाट) से वहाँ पहुँचे थे। पुरानी महाराष्ट्रीकी त भिक्ष-प्रातिभोक्ष और विभंग च, छ, ज, ञ भिक्षुणी-प्रातिमोक्ष और विभंग क्षुद्रकवस्तु उत्तर-ग्रंथ न, प
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।