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१७१।९] श्रेष्ठी गृहपतिकी दीक्षा [ ८५ प्रसन्न हो, भगवान्को अभिवादनकर, एक ओर बैठ गया।....भगवान्ने आनुपूर्वी ' कथा, जैसे-'दान- कथा०' प्रकाशित की। श्रेष्ठी गृहपतिको उसी आसनपर० धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ । भगवान्के धर्ममें स्वतन्त्र हो, वह भगवान्से बोला--"आश्चर्य! भन्ते !! आश्चर्य ! भन्ते !! जैसे औंधेको सीधा कर दे, ढंकेको उघाळ दे, भूलेको रास्ता बतला दे, अंधकारमें तेलका प्रदीप रख दे, जिसमें कि आँखवाले रूप देखें; ऐसेही भगवान्ने अनेक पर्यायसे धर्मको प्रकाशित किया । यह मैं भग- वान्की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघकी भी। आजसे मुझे भगवान् अंजलिबद्ध शरणागत उपा- सक ग्रहण करें।" वह (गृहपति) ही संसारमें तीन-वचनोंवाला प्रथम उपासक हुआ । जिस समय (उसके) पिताको धर्मोपदेश किया जा रहा था, उस समय (अपने) देखे और जानेके अनुसार गंभीर चिन्तन करते, यश कुल-पुत्रका चित्त अलिप्त हो, आस्रवों (=दोपों मलों) से मुक्त होगया । तब भगवान्के (मनमें) हुआ--"पिताको धर्म-उपदेश किये जाते समय (अपने) देखे और जानेके अनुसार प्रत्यवेक्षण करते, यग कुल-पुत्रका चित्त अलिप्त हो, आत्रवोंसे मुक्त हो गया। (अव) यश कुल-पुत्र पहिली-गृहस्थ अवस्थाकी भाँति हीन (-स्थिति) में रह, गृहस्थ सुग्व भोगनेके योग्य नहीं है, क्यों न में योग-बलके प्रभावको हटा लें।" तब भगवान्ने ऋद्धिके प्रभावको हटा लिया। श्रेष्ठी गृहपतिने यश कुल-पुत्रको बैठे देखा । देखकर यश कुलपुत्रसे बोला- "तात ! यश! तेरी माँ रोतीपीटती और गोकमें पळी है, माताको जीवन दान दे।" यग कुलपुत्रने भगवान्की ओर आंग्व फेरी। भगवान्ने श्रेष्ठी गृहपतिसे कहा- "सो गृहपति ! क्या समझता है, जैसे तुमने अपूर्ण जानने, अपूर्ण साक्षात्काग्ने धर्मको देखा, बनही यगने भी (देवा) ? देवे और जानेके अनुसार प्रत्यवेक्षण करके, उसका चित्त अलिप्त हो, आम्रवोंसे मुक्त हो गया है। अब वया वह पहिली गृहस्थ-अवस्थाकी भांति हीन (-स्थिति ) में रहकर, गृहन्थ सुख भोगनेके योग्य है ?" "नहीं, भन्ते !" "गृहपति ! (पहिले) अपूर्ण ज्ञानले, और अपूर्ण दर्शनसे यगने भी धर्मको देन्या, जैसे तूने । फिर देवे और जानेवे. अनुसार प्रत्यवेक्षण करके, (उसका) चित्त अलिप्त हो आत्रवोंने मुक्त हो गया। गृहपति ! अब यग कुल-पुत्र पहिलेकी गृहस्थ-अवस्थाकी भाँति हीन (-स्थिति) में रह गृहस्थ-मुग्व भोगने योग्य नहीं है।" "लाभ है भन्ने ! य ग कुल-पुत्रको; सुलान किया भन्ते ! या कुल-पुत्रने; जो कि यग बलपुत्रका चिन अलिप्त हो आन्त्रवोंसे मुक्त हो गया। भन्ते ! भगवान् यगको अनुगामी निक्ष ना. मेग आजका भोजन स्वीकार कीजिये।" भगवान्ने मौनने न्वीकृति प्रकट की। की गदापति भगवान्की बीति जान, आसनने , भगवान्को अभिबादनकर प्रदक्षिणा- २. माना। फिर मग कुल-पुत्रने श्रेप्टी गृहपतिते चले जानेने थोळीही देर बाद भगवान्ने बहा- " भगान् मोज्या दें. उपनंपदा दें। भगवान ने नहा- ---"नि गगे धर्म मृ-भान्जान है अच्छी नह दृद भव दिये कहा- लो!"जीन मन्त्री जनपदा हुई ! उन समय लोरमे मात । ? पता-प्रदज्या समाप्त । पए ८४ । ६८. " और नीनेही दान होगा ददन ।