पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/८९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका भगवान् शिव-जलन्धरके गर्वरूपी पर्वतको तोडनेके लिये वज्ररूप, पार्वतीके पति, संसारके उत्पत्तिस्थान हैं और दक्षके सम्पूर्ण यज्ञके विध्वस करनेवाले हैं ॥ ७ ॥ भगवान् विष्णु--जिनको भक्ति ही प्यारी है,जोभक्तोंके मनोरथ पूर्ण करनेके लिये कामधेनुके समान हैं और उनकी बड़ी-बड़ी कठिन तथा भयानक विपत्तियोंके हरनेवाले, अतएव हरि कहलानेवाले हैं। ____ भगवान् शिव--सुख, आनन्द और मनचाहा वर देनेवाले, विरक्त, सब प्रकारके विकारों एवं दोषोंसे रहित और आनन्दवन काशीकी गलियोंमे विहार करनेवाले हैं ॥ ८॥ ____ यह हरि और शकरके नाम-मन्त्रोंकी सुन्दर पक्तियों राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे जनित दु.खको हरनेवाली, आनन्दकी खानि और विष्णु तथा शिरलोकमें जानेके लिये सदा सीढीके समान हैं, यह बात तुलसीदास शुद्ध वाणीसे कहता है॥९॥ [५०] देव- भानुकुल-कमल-रवि, कोटि कंदर्प-छवि, काल-कलि-व्यालमिव वैनतेयं। प्रबल भुजदंडपरचंड कोदंड-धरतूणवर विशिख बलमप्रमेयं ॥१॥ अरुण राजीवदल-नयन, सुपमा-अयन, श्याम तन-कांति वर वारिदाभ । नप्तकांचन-वस्त्र-शस्त्र विद्या-निपुण,सिद्ध-सुर-सेव्य,पाथोजनाम। अखिल लावण्य-गृह, विश्व-विग्रह, परम प्रौढ़, गुणगूढ़, महिमा उदारं।