विनय-पत्रिका यह तुलसीदास आपकी गरण पडा है, कृपाकर इसे अपने प्रणतपाल चरणोंका सहारा दीजिये ॥ ९ ॥ राग गौरी [१५]. श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं। नवज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं ॥१॥ कंदर्षे अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुंदरं। पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥२॥ भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकंदनं । रघुनंद आनंदकंद कोसलचंद दशरथ नंदनं ॥३॥ सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदार अंग विभूषणं । आजानुभुज शरस्चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं ॥४॥ इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं । मम हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥ भावार्थ-हे मन ! कृपालु श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर । वे ससारके जन्म-मरणरूप दारुण भयको दूर करनेवाले हैं, उनके नेत्र नव-विकसित कमलके समान है, मुख, हाथ और चरण भी लाल कमलके सदृश हैं ॥१॥ उनके सौन्दर्यकी छटा अगणित कामदेवोंसे बढ़कर है, उनके शरीरका नवीन नील-सजल मेघके-जैसा सुन्दर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीरमें मानो बिजलीके समान चमक रहा है, ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥ हे मन ! दीनोंके बन्धु, सूर्यके समान तेजस्वी, दानव और दैत्योंके वंशका समूल नाश करनेवाले, आनन्दकन्द,कोशल-देशरूपी आकाशमें
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/७९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।