विनय-पत्रिका ७४ जयति पाकारिसुत-काक करतूति-फलदानि खानि गर्त गोपित विराधा॥ दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्ववाधा ॥ ५॥ जयति खर-त्रिशिर-दूषणचतुर्दस-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता गृध-शवरी-भक्ति-विवश करुणासिंधु, चरित निरुपाधि, त्रिवि- धार्तिहर्ता ॥ ६॥ जयति मद-अंध कुकवंध बधि, यालि वलशालि बधि, करन सुग्रीव राजा। सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट सजत, नमत पद रावणानुज- निवाजा ॥ ७॥ जयति पाथोधि-कृत-सेतु-कौतुक हेतु, काल-मन-अगम लई ललकि लंका। सकुल, सानुज, सदल दलित दशकंठरण,लोक-लोकपकियेरहित- शंका ॥ ९॥ जयतिसौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारूढ़ निजराजधानी दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल, रामभेभूपवैदेहि रानी॥९॥ भावार्थ-श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो । आप सत्, चेतन, व्यापक आनन्दरूप परब्रह्म हैं । आप लीला करनेके लिये ही अव्यक्तसे व्यक्त- रूपमें प्रकट हुए हैं। जब ब्रह्मा आदि सब देवता और सिद्धगण दानवोंके अत्याचारसे व्याकुल हो गये, तब उनके सकोचसे आपने निर्मल गुणसम्पन्न नर-गरीर धारण किया ॥ १ ॥ आपकी जय हो- आप कल्याणरूप कोशलनरेश दशरथजी और कल्याण-खरूपिणी महारानी कौशल्याके यहाँ चार भाइयोंके रूपमें (सालोक्य, सामीप्य,
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