पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/७०

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विनय-पत्रिका दीन, सब अँग हीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ । नाम लै भरै उदर एक प्रभुदासी-दास कहाइ ॥२॥ वूझिहै 'सो है कौन', कहिवी नाम दसा जनाइ । सुनत राम कृपालुके मेरी विगरिऔ बनि जाइ ॥ ३॥ जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ । तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ॥ ४॥ भावार्थ-हे माता ! कभी अवसर हो तो कुछ करुणाकी बात छेड़कर श्रीरामचन्द्रजीको मेरी भी याद दिला देना, ( इसीसे मेरा काम बन जायगा ) ॥ १॥ यों कहना कि एक अत्यन्त दीन, जयति चितचरणचिन्तनि जेहि धरति हृत काम-भय-कोह-मद-मोद-माया । रुद्र-विधि-विष्णु-सुर-सिद्ध-वदितपदे जयति सर्वेश्वरी रामजाया । कर्म जप जोग विज्ञान वैराग्य लहि मोक्षहित योगि जे प्रभु मनावै । जयति वैदेहि सब शक्तिशिरभूषणे ते न तव दृष्टि बिनु कबहुँ पावै ॥ जयति जय कोटि ब्रह्माण्डकी ईशि जेहि निगम-मुनि बुद्धितें अगम गावें। विदित यह गाथ अहदानकुलमाथ सो नाथ तव दान ते हाथ आ॥ दिव्य गत वर्ष जप-ध्यान जब शिव घरयो राम गुरुरूप मिलि पथ बतायो । वित हित लीन लखि कृरा कीन्हीं तबै देवि, दुर्लभ देव दरस पायो । जयति श्रीस्वामिनी सीय सुभनामिनी. दामिनी कोटि निज देह दसैं । इदिरा आदि दै मत्त गजगामिनी देवभामिनी सधै पॉव परसें ॥ दुखित लखि भक्त बिनु दरस निज रूप तप यजन जप तत्र ते सुलभ नाहीं। कृपा करि पूर्ण नवकजदललोचना प्रकट भइ जनकनृप-अजिर माहीं ।। रमित तव विपिन प्रिय प्रेम प्रगटन करन लकपति व्याज कछु खेल ठान्यौ । गोपिका कृष्ण तव तुल्य बहु जतन करि तोहि मिलि ईश आनंद मान्यौ ॥ हीन तव सुमुखि कै संग रहिं रंकसों विमुख जो देव नहिं नाथ नेरौ । अधमउद्धरण यह जानि गहि शरण तव दासतुलसीभयौ आय चेरौ ॥४०॥