विनय-पत्रिका - शत्रुघ्न-स्तुति राग धनाश्री [४०] जयति जय शत्रु करि-केसरी शत्रुहन, शत्रुतम-तुहिनहर किरणकेतू । देव-महिदेव-महि-धेनु-सेवक सुजन- सिद्ध-मुनि-सकल-कल्याण-हेतू जयति सर्वांगसुन्दर सुमित्रा-सुवन, भुवन-विख्यात-भरतानुगामी वर्मचर्मासि-धनु-वाण-तूणीर-धर शत्रु-संकट-समय यत्प्रणामी ॥ २॥ जयति लवणाम्बुनिधि कुंभसंभव महा- दनुज-दुर्जनदवन दुरितहारी। लक्ष्मणानुज, भरत-राम-सीता-चरण- रेणु-भूषित भाल-तिलकधारी जयति श्रुतिकीर्ति-वल्लभ सुदुर्लभ सुलभ नमत नर्मद भुकिमुक्तिदाता । दासतुलसी चरण-शरण सीदत विभो, दीनार्त-संताप-हाता॥ ४॥ पाहि भावार्थ-शत्रुरूपी हाथियोंके नाश करनेको सिंहरूप श्री- शत्रुघ्नजीकी जय हो, जय हो, जो शत्रुरूपी अन्धकार और कुहरेके हरनेके लिये साक्षात् सूर्य हैं और देवता, ब्राह्मण, पृथ्वी और गौके सेवक, सजन, सिद्ध और मुनियोंका सब प्रकार कल्याण करनेवाले
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